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प्रस्तावना
"आत्मा सहैति मनसा मन इन्द्रियेण स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम एष शीघ्रः । योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति,
यस्मिन् मनो व्रजति तत्र गतोऽयमात्मा॥" -बृहत्संहिता ७४।३ इसकी टीका करते हुए भट्टोत्पलने यह लिखा है-"अयमर्थः-आत्मा मनसा सह युज्यते मनश्च इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थन ।” भट्टोत्पलका समय शक ८८८ (ई० ९६६) है। न्यायभाष्य (१।१।४) में 'न तर्हि इदानीमिदं भवति आत्मा मनसा युज्यते मन इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थनेति' यह वाक्य उद्धृत जैसा पाया जाता है । प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति टीकामें (पृ० १७७) में भी यह उद्धृत है । भट्टजयन्तने भी न्यायमञ्जरी प्रमाणभाग (पृ० ७०) के चतुष्टय सन्निकर्षके प्रकरणमें "आत्मा मनसा संयुज्यते मन इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थन" ये वाक्य लिखे हैं ।
रचना से तो ज्ञात होता है कि यह वाक्य किसी न्यायग्रन्थका होना चाहिये जिसे वराहमिहिरने श्लोकबद्ध किया है । न्यायभाष्यका 'न तीदानामिदं भवति' इस वाक्यसे लगता तो ऐसा है जैसे किसी समानतन्त्रीय भाष्यपूर्वकालीन ग्रन्थका यह वाक्य हो । अस्तु, यह वाक्य बहुत पुराना' अर्थात् न्यायभाष्यसे भी बहुत पुराना है । आचार्य अनन्तवीर्यने प्रस्तुत टीकामें यह वाक्य दो बार उद्धृत किया है । दो अविद्धकर्ण और अनन्तवीर्य
भारतीय विस्मृत दर्शनकारोंमें अविद्धकर्ण भी हैं, जिनके सम्बन्धकी जानकारी बहुत थोड़ी है। किन्तु कुछ बौद्ध दर्शनके ग्रन्थों के प्रकाशमें आनेसे दो अविद्धकर्णों का पता चलता है ।
एक अविद्धकर्ण नैयायिक थे और ये न्यायभाष्यके टीकाकार थे । वादन्याय (पृ० ७८) में प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थानके प्रकरणमें इनकी न्यायभाष्यटीकाका उल्लेख किया गया है ।
इनके अन्य मत इस प्रकार उपलब्ध होते हैं(१) रूपादिके ग्रहण न होनेपर भी द्रव्यका ग्रहण होता है । (२) अवयव और अवयवी पूर्वोत्तरकालभावी होनेसे विभिन्न है ।'
(३) यदि प्रतिज्ञावाक्यको निरर्थक कहा जाता है तो 'कृतकश्च शब्दः' यह भी नहीं कहना चाहिये क्योंकि अनित्यत्व कहने से ही शब्दमें कृतकत्व और अनित्यत्व दोनोंका बोध हो जाता है।" (१) तुलना-"आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानां सन्निकर्षात् प्रवर्तते ।
व्यक्ता तदात्वे या बुद्धिः प्रत्यक्षं सा निरुच्यते ॥-चरकसं०११११२० (२) "अविद्धकर्णस्तु भाष्यटीकायाम् इदमाशङ्क्य परिजिहीर्षति-ननु चासर्वगतत्वे सतीति हेतुविशेषणमुक्तम् । सविशेषणश्च हेतुः विपक्षे नास्तीति न प्रतिज्ञान्तरं निग्रहस्थानम् । न हि तदेवमसर्वगतः शब्द इति प्रतिज्ञान्तरोपादानात् । हेतुविशेषणोपादाने हेत्वन्तरं निग्रहस्थानमिति । एतच्च अतिस्थूलम्"वादन्याय टी० पृ० ७८।।
(३) "अविद्धकर्णस्त्वाह-रूपाद्यग्रहेऽपि द्रव्यग्रहणमस्त्येव यतो मन्दप्रकाशे अनुपलभ्यमानरूपादिकं द्रव्यमुपलभते । अनिश्चितरूपं गौरश्वो वेति ।"-वादन्याय टी० पृ० ३५। (४) "तदेतेनैव अविद्धकर्णोक्तं पूर्वोत्तरकालभावित्वात् इत्यादि तत्साधनमपहस्तितं वेदितव्यम् ।"
-वादन्याय टी० पृ. ४० । (५) "तदन अविद्धकर्णः प्रतिबन्धकन्यायेन प्रत्यवतिष्ठते-यद्येवम् कृतकश्च शब्द इत्येतदपि न वक्तव्यम् । किं कारणम् ? अनित्यत्वमित्येतेनैव शब्देऽपि कृतकत्वमनित्यत्वञ्चोभयं प्रतिपद्यते......"
-वादन्याय टी० पृ० १०९ ।
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