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________________ ग्रन्थकार अनन्तवीर्य : विशेष तुलना लिया गया है । इसमें वसुबन्धुका अभिधर्मकोश नागार्जुनकी माध्यमिक वृत्ति दिग्नागका प्रमाणसमुच्चय और उसकी स्ववृत्ति धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिक प्रमाणविनिश्चय न्यायबिन्दु वादन्याय हेतुबिन्दु और सम्बन्धपरीक्षा आदि और प्रज्ञाकरका प्रमाणवार्तिकालंकार उद्धृत हुए हैं। बौद्धों के पूर्वपक्षका बहुभाग प्रज्ञाकरके ग्रन्थों के अवतरणोंसे परिपुष्ट हुआ है। इनमें दसों अवतरण ऐसे हैं जो प्रज्ञाकरके मुद्रित वार्तिकालङ्कारमें नहीं पाये जाते । ज्ञात होता है कि वे प्रज्ञाकरके किसी अन्य ग्रन्थके हैं। धर्मकीर्तिके जिस अपोहवार्तिकका उल्लेख है वह प्रमाणवार्तिकका अपोह प्रकरण ही ज्ञात होता है। गाद्गलकीर्तिके नामसे एक श्लोक उदधृत' है। पता नहीं ये गाद्गलकीर्ति कौन हैं ? अभी तक जो नाम बौद्ध आचार्यों के प्रकाशमें आये हैं उनमें इस नामका पता नहीं चलता। अर्चटकी हेतबिन्द टीकाके अवतरण तो हैं ही साथ ही कुछ अवतरण अर्चटके नामके ऐसे भी हैं जो हेतुबिन्दु टीकामें नहीं पाये जाते । वे उनके अन्य ग्रन्थोंके होंगे। धर्मोत्तरके नामके अवतरण भी न्यायबिन्दुटीकामें उपलब्ध नहीं होते संभवतः वे भी उनके किसी अन्य ग्रन्थके होंगे। कर्णकगोमिका कल्लकके नामसे भी उल्लेख किया गया है। इनके नामके अवतरण भी प्रमाणवार्तिक स्ववृत्तिटीकामें उपलब्ध नहीं हुए। इसी तरह शान्तभद्रके नामसे उपलब्ध अवतरण भी उनकी न्यायबिन्दुटीकाके होंगे जो उपलब्ध नहीं है, पर दुकमिश्रके धर्मोत्तरप्रदीपमें बहुशः उद्धृत है और जिसका खण्डन धर्मोत्तरने किया है । इनमेंसे अनेक आचार्योंका समय और तुलना 'अकलङ्ककी तुलना' प्रकरणमें की जा चुकी है। जैनग्रन्थों में उत्तरपक्षको पुष्ट करनेके लिए उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्र, समन्तभद्रके देवागमस्तोत्र और बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रके अवतरण लिए गये हैं। समन्तभद्रके नामका एक 'ययोः सहोपलम्भ' अवतरण पाया जाता है किन्तु यहाँ प्रतिके टूट जानेसे उसका पूरा स्वरूप ज्ञात नहीं हो सका और न यही पता चला कि वह किस समन्तभद्र का है ? यदि इन्हींका है तो इनके किस ग्रन्थका है ? सिद्धसेनके सन्मतितर्कसे 'जे संतवाय' गाथा उद्धृत की गई है। पात्रकेसरीके त्रिलक्षणकदर्थन से 'अन्यथानुपपन्नत्वं' श्लोक तथा पात्रकेसरीस्तोत्रसे 'अशेषविदेहेक्ष्यते' श्लोक उद्धृत किया गया है। अकलङ्कके तो सभी ग्रन्थोंका सूक्ष्म परिशीलन इसके ऊपर लक्षित होता है । एक कथात्रयभङ्ग ग्रन्थका भी उल्लेख आता है, इसके कर्ताका पता नहीं चला । इसमें चूर्णिप्रकरण का भी उल्लेख है, जो अकलङ्ककी न्यायविनिश्चयवृत्तिका नाम मालूम होता है । इसमें न्यायविनिश्चयके नामसे जो "न चैतद्वहि' इत्यादि वाक्य उद्धृत मिलता है, उसीसे न्यायविनिश्चयकी वृत्तिके अस्तित्वकी पुष्टि होती है। हरिभद्रसूरिके योगबिन्दुसे "ज्ञो शेये कथमज्ञः" इलोक उद्धृत है,यह इलोक विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें भी उद्धृत किया है । इसमें जो 'जीवसिद्धिप्रकरण' का उल्लेख आया है वह इसी ग्रन्थके 'जीवसिद्धि' प्रस्तावका ज्ञात होता है। अनन्तकीर्ति के स्वतःप्रामाण्यभङ्ग ग्रन्थका उल्लेख इस टीकामें बड़े आदरसे किया गया है । यशस्तिलकचम्पू उत्तरार्धसे भी इसमें एक श्लोक उद्धृत है। इस तरह यह टीका सैकड़ों ग्रन्थान्तरीय अवतरणोंसे समृद्ध होकर अपने रचयिताके बहुश्रुतत्वका ख्यापन कर रही है। विशेष तुलनाबृहत्संहिता और अनन्तवीर्य आचार्य वराहमिहिरका ज्योतिष विषयक बृहत्संहिता ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इनका समय ई० ५०१ है। इन्होंने मनके वर्णनके प्रसङ्गमें निम्नलिखित श्लोक लिखा है (१) सिद्धवि० टी० पृ० ४५० । (२) पृ० ४२० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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