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________________ ॐ० व्याकरण ग्रन्थ और अनन्तवीर्य आ० अनन्तवीर्यने मूल पाणिनिसूत्र तथा उसके पातञ्जलभाष्यका भी अनुशीलन किया था । वे पाणिनिकै 'अर्थवद्धातु-' इस सूत्रका उद्धरण देते हैं तथा 'प्रकृतिपर एव प्रत्ययः प्रयोक्तव्यः प्रत्ययपरैव च प्रकृतिः' (पात० महा० ३ १ २ ) इस वाक्यका ' न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या' इत्यादि अनुवाद उद्धृत करते हैं । प्रमुखतया तो वे पूज्यपादके जैनेन्द्रव्याकरणसे ही सूत्रोंके उद्धरण तथा जैनेन्द्रकी ही संज्ञाओं का उपयोग करते हैं । दर्शनशास्त्र और अनन्तवीर्य प्रस्तावना अनन्तवीर्यने चार्वाक के पूर्वपक्षमें मुख्यतया जयराशिके तत्त्वोपप्लवसिंह ग्रन्थसे ही अवतरण लिए हैं । इन्होंने तत्त्वोपप्लवका जयराशिके नाम के साथ उल्लेख किया है । ' इसमें " परपर्यनुयोगपराणि बृहस्पतेः,सूत्राणि” वाक्य तत्त्वोपप्लव के सन्दर्भमें ही उद्धृत किया है । उपलब्ध तत्त्वोपप्लवसिंह ग्रन्थका प्रारम्भिक पत्र टूटा हुआ है । सम्भवतः यह वाक्य उसीमें हो। इसके अतिरिक्त चार्वाक मतके पूर्वपक्षमें जिस अविद्धकर्णका सहारा लिया गया है उसका वर्णन "दो अविद्धकर्ण" शीर्षक स्तम्भ ( पृ०७२) में देखना चाहिये | न्यायवैशेषिक के पूर्वपक्षमें अनन्तवीर्यने अक्षपादका नाम लेकर तो न्यायसूत्रसे, तथा न्यायभाष्यसे अनेक अवतरण दिये हैं ।' न्यायसूत्रका 'पूर्ववच्छेषवत्' आदि अनुमानसूत्र तीन पृथक् सूत्र बनाकर उद्धृत किया गया है। उद्योतकरके न्यायवार्तिक के अवतरण भी इसमें पाये जाते हैं । वैशेषिकके विवेचन में कणचर या कणभक्षके नामसे वैशेषिक सूत्रों के उद्धरण उपलब्ध होते हैं । प्रशस्तपादभाष्य तथा उसकी व्योमवती टीकाका भी उपयोग किया है । किन्तु इसमें वैशेषिकसूत्रकी जिस प्राचीन सूत्रानुसारिणी टीकासे अनेक अवतरण लिए गये हैं वे उपलब्ध वृत्तियों में नहीं मिलते। सूत्रों के उद्धरणों में पाठभेद भी है। सांख्ययोग के पूर्व पक्ष में ईश्वरकृष्णकी सांख्यकारिका, पतञ्जलिके योगसूत्र और व्यासके योगभाष्यसे अनेकों अवतरण लिये गये हैं । किन्तु " इन्द्रियाण्यर्थमालोचयन्ति अहङ्कारोऽभिमन्यते" इत्यादि अवतरण' किसी प्राचीन सांख्य ग्रन्थका है, यह उपलब्ध टीकाओं में नहीं मिलता । इसीतरह इसमें " गुणानां परमं रूपं” श्लोक उद्धृत है जो योगभाष्य (४/१३ ) में ' तथा च शास्त्रानुशासनम्' करके तथा शाङ्करभाष्यमामती ( पृ० ३५२) में भगवान् वार्षगण्य के नामसे उद्धृत मिलता है । में मीमांसादर्शन के पूर्वपक्ष में जैमिनि के सूत्र, शबरके भाष्य, उपवर्षकी वृत्ति और कुमारिलके मीमांसा श्लोकवार्तिकसे पचासों अवतरण लिए हैं ।' सर्वज्ञसिद्धि प्रस्ताव में तो जैमिनि और कुमारिलके ग्रन्थ विशेषतः पूर्वपक्षके आधार हैं । प्रभाकरका उल्लेख प्रमाणपञ्चकवादी के रूपमें किया गया है । १० पृ० २६० 'प्रभाकरस्त्वाह' लिखकर - "न मांसभक्षणे दोषः " आदि श्लोक उद्धृत किया है । यह श्लोक मनुस्मृति (५/५६) में पाया जाता है । उपवर्ष के नामसे वही " गौरित्यत्र कः शब्दः ? गकारौकारविसर्जनीया इति भगवानुपवर्षः” अवतरण उद्धृत किया गया है " जो शाबरभाष्य (११११५) में उद्धृत है । अनेक श्लोक कुमारिलके सन्दर्भमें उद्धृत हैं पर वे कुमारिलके उपलब्ध मीमांसाश्लोकवार्तिक और तन्त्रवार्तिकमें नहीं पाये जाते । बौद्धदर्शन के पूर्व पक्ष में अनन्तवीर्यने टीकाका एक चतुर्थांश लिया होगा ।" इसमें त्रिपिटकका नाम (१) सिद्धिवि० टी० पृ० २७७ । (२) देखो परिशिष्ट ९ । (५) सिद्धिवि० टी० पृ० ५३-५६ । (७) सिद्धिवि० टी० पृ० ९९ । (९) देखो परिशिष्ट ८, ९ । (११) वही पृ० ६९४ । Jain Education International (३) वही । (६) वही पृ० ५६ । (८) पृ० ८९ । (१०) सिद्धिवि० टी० पृ० १८४ । (१२) देखो परि० ८ और १ । (४) वही । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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