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________________ ६४ प्रस्तावना उसके द्वारा गृहीत व्याप्ति में कैसे विश्वास किया जा सकेगा ? अतः तर्क भी स्वविषय में अविसंवादी होनेसे प्रमाण है । १५. अनुमान के अवयवोंकी व्यवस्था यद्यपि सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतार और पात्रस्वामीके त्रिलक्षणकदर्थन एवं श्रीदत्त के जल्पनिर्णय से अनुमानका लक्षण उसके अवयव और साध्याभास हेत्वाभास आदिकी रूपरेखा अकलङ्कदेवको मिली होगी । पर उन्होंने अविनाभावैकलक्षण हेतु तथा एक ही प्रकारके अनुमानको माननेका अपना मत रखा है। अवयवों में प्रतिज्ञा और हेतु दो अवयवोंको पर्याप्त माना है । प्रतिपाद्यके अनुरोधसे अन्य अवयवों में दृष्टान्तको भी प्रमुखता दी है। १६. हेतुके भेद' अकलङ्कदेव ने कार्य स्वभाव और अनुपलब्धिके सिवाय कारणहेतु पूर्वचरहेतु उत्तर हेतु और सहचरहेतुको पृथक् माननेका समर्थन किया है । १७. अदृश्यानुपलब्धिसे भी अभावकी सिद्धि' अदृश्यका साधारण तात्पर्य 'प्रत्यक्षका अविषय' लिया जाता है और इसीलिये अदृश्यानुपलब्धिसे धर्मकीर्तिने संशय माना है । अकलङ्कदेव अदृश्य किन्तु अनुमेय परचित्त आदिका अभाव भी अदृश्यानुपलब्धिसे स्वीकार करते हैं । ये अनुपलब्धिसे विधि और प्रतिषेध दोनों साध्योंकी सिद्धि मानते हैं । १८. हेत्वाभास' - यद्यपि अकलङ्कदेव अविनाभावरूप एक लक्षण के अभाव में वस्तुतः एक ही असिद्ध हेत्वाभास मानते हैं, किन्तु अविनाभावका अभाव कई प्रकारसे होता है अतः विरुद्ध असिद्ध सन्दिग्ध और अकिञ्चित्कर ये चार हेत्वाभास भी मानते हैं । १९. वाद और जल्प एक हैं - नैयायिक तत्त्वनिर्णय और तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणको जुदा मानकर तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणके लिये छादि असत् उपयोंका आलम्बन करना भी उचित नहीं, न करनेपर निग्रहस्थान मानते हैं । पर अकलङ्कदेवने किसी भी दशा में छलादिका प्रयोग उचित नहीं माना। अतः इनकी दृष्टिसे छलादिप्रयोगवाली जल्प कथा और वितण्डा कथाका अस्तित्व ही नहीं है । वे केवल एक वादकथा मानते हैं । इसीलिये वे वादको ही जल्प कहते हैं । इस सम्बन्धका सूत्र सम्भवतः इन्हें श्रीदत्त के जल्पनिर्णय से मिला होगा । २० जातिका लक्षण अकलङ्कने मिथ्या' उत्तरको जात्युत्तर कहा है । साधर्म्यादिसमा आदि जातियों के प्रयोगको ये अनुचित मानते हैं । उन्होंने यह भी कहा है कि मिथ्या उत्तर अनन्त प्रकारके हैं अतः उनकी गिनती करना कठिन है । २१. जय पराजय व्यवस्था नैयायिकोंने जय-पराजयव्यवस्था के लिये निग्रहस्थानोंका जटिल जाल बनाया है । बौद्धोंने उससे निकलकर असाधनाङ्ग वचन और अदोषोद्भावन इन दो निग्रहस्थानोंको मानकर उस जालको बहुत कुछ तोड़ा था । किन्तु उनके विविध अर्थोंका जो थोड़ा-बहुत उलझाव था उसे अकलङ्कदेवने अत्यन्त सीधा बनाते हुए कहा कि जो अपना पक्ष सिद्ध कर ले उसका जय और जिसका पक्ष निराकृत हो जाय उसका (१) लघी ० श्लो० १३-१४ । (३) न्यायवि० श्लो० ३६५-३७० । (५) न्यायवि० श्लो० ३७१ । Jain Education International (२) लघी० लो० १५ । (४) सिद्धिवि० ५।२ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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