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ग्रन्थकार अकलङ्क जैन न्यायको देन ९. वैशद्यका लक्षण
विशदज्ञानको प्रत्यक्ष कहनेके बाद वैशद्य का लक्षण करना न्यायप्राप्त था । अकलङ्कदेवने अनुमान आदिसे अधिक विशेष प्रतिभास' को वैशद्य कहा है । १०. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष
तत्त्वार्थसूत्रमें मति श्रुत आदि पाँच आगमिक ज्ञानोंका केवल प्रत्यक्ष और परोक्षरूपसे दो प्रमाण माननेका निर्देश किया गया था। किन्तु उनकी प्रत्यक्षता और परोक्षताके आधार जुदे थे। आत्ममात्रसापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष और इन्द्रिय तथा मनकी अपेक्षा रखनेवाले ज्ञान परोक्ष थे। जबकि सभी दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष तथा अनुमानादिको परोक्षकी श्रेणी में रखते थे। प्रत्यक्षमें 'अक्ष' शब्द इसी व्यवस्थाका साक्षी था । यद्यपि जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणने इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है फिर भी उसका सयुक्तिक प्रतिपादन दार्शनिक भाषामें अकलंकने ही किया है। उन्होंने कहा कि-चूंकि इन्द्रियजन्यज्ञान एकदेशसे विशद है अतः वैशद्यांशका सद्भाव होनेसे यह भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। ११. परोक्षका लक्षण और भेद
अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थसूत्रकारके द्वारा निर्दिष्ट परोक्षज्ञानोंमें मतिज्ञानके 'मति' को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा,किन्तु साथमें यह भी कहा कि मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और आभिनिबोधिक शब्दयोजनाके पहले मतिज्ञान हैं और शब्दयोजनाके बाद श्रुतज्ञान हैं । श्रुत अविशद होनेसे परोक्ष है । ये मति स्मृति आदि ज्ञान शब्दयोजनाके बिना भी होते हैं और शब्दयोजनाके बाद भी। शब्दयोजनाके पहिले ये सभी ज्ञान मतिज्ञान हैं और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं । तत्त्वार्थवार्तिकमें अकलङ्कदेवने अनुमान आदि ज्ञानोंको स्वप्रतिपत्तिकालमें अनक्षरश्रुत तथा परप्रतिपत्तिकालमें अक्षरश्रुत कहा है । लघीयस्त्रयमें स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोधको अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष भी कहा है । इससे यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थवार्तिक और लघीयस्त्रयमें अकलङ्कदेव स्मत्यादिज्ञानोंको अवस्था विशेषमें मतिज्ञान या सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर भी न्यायविनिश्चयमें उन स्मृति आदि ज्ञानोंके ऐकान्तिक परोक्षत्वका विधान करते हैं और यहीं वे परोक्षप्रमाणके स्मृति संज्ञा चिन्ता अभिनिबोध और श्रुत-आगम ये पाँच भेद निश्चित कर देते हैं। १२. स्मृतिका प्रामाण्य -
प्रायः समी वादी स्मरणको गृहीतग्राही मानकर अप्रमाण कहते आये हैं। किन्तु अकलङ्कदेवने स्वविषयमें अविसंवादी होनेके कारण इसे प्रमाणताका वही दर्जा दिया है जो अन्य प्रमाणोंको प्राप्त था। १३. प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य -
प्रत्यभिज्ञानको मीमांसकने इन्द्रियप्रत्यक्षमें और नैयायिकने मानसविकल्पमें अन्तर्भूत किया था तथा बौद्धने अप्रमाण कहा था । परन्तु अकलङ्कदेवने इसे स्वतन्त्र प्रमाण मानकर इसीके भेदस्वरूप सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें नैयायिकादिके उपमानका अन्तर्भाव दिखाया है और कहा है कि यदि सादृश्यविषयक उपमानको पृथक् प्रमाण मानते हो तो वैधर्म्यविषयक तथा आपेक्षिक आदि प्रत्यभिज्ञानोंको भी स्वतन्त्र प्रमाण मानना पड़ेगा। १४. तर्ककी प्रमाणता
व्याप्तिग्राही तर्कको न तो वादी प्रमाण कहना चाहते थे और न अप्रमाण । प्रमाणोंका अनुग्राहक माननेमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी । किन्तु अकलङ्कदेवने कहा कि यदि तर्कको प्रमाण नहीं मानते हो तो
(१) लघी० श्लो० ४। (२) लघी० श्लो० ३। (३) लघी० श्लो० १०। (४) श्लो०६१। (५) लघी० स्ववृ० १॥१०॥ (६) लघी० श्लो० १०, १९-२१। (७) लघी० श्लो० ११॥ प्रमाणसं० श्लो० १२ ।
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