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________________ ग्रन्थकार अकलङ्क: उनका व्यक्तित्व पराजय होना चाहिए । अपने पक्षको सिद्ध करके यदि कोई नाचता भी है तो भी कोई दोष नहीं। इस तरह उन्होंने जय-पराजयका सीधा मार्ग बताया। २२. सप्तभंगी निरूपणमें प्रगति सप्तभङ्गी विधिमें प्रमाणसप्तभङ्गी और नयसप्तभङ्गीकी योजनाके लिये सकलादेश और विकलादेशका सयुक्तिक विस्तृत निरूपण अकलङ्कदेवने किया है। यहीं अभेदवृत्ति और अभेदोपचारके लिये काल आत्मरूप अर्थ सम्बन्ध उपकार गुणिदेश संसर्ग और शब्द इन कालादि आठकी दृष्टिसे विवेचनकी प्रक्रिया बताई है । अनेकान्तमें दिये जानेवाले संशयादि दोषोंके उद्धारका व्यवस्थित क्रम इनके ग्रन्थों में विशेष रूपसे देखा जाता है। इसी तरह नय नयाभासोंका विवेचन, सकलादेश और विकलादेशमें एवकारके प्रयोगका विचार, निक्षेप निरूपणकी अपनी पद्धति आदिका वर्णन भी अकलङ्कके ग्रन्थों में है । बौद्धोंके साथ ही साथ अन्य दर्शनोंकी मार्मिक आलोचना भी अकलङ्कदेवने यथावसर करके अकलङ्क न्यायके स्वपक्ष साधन और परपक्षदूषण दोनों पक्षोंको खूब समृद्ध किया है । इनमेंसे कुछ विशेष मुद्दोंका विवेचन आगे 'ग्रन्थ-परिचय' विभागमें विस्तारसे किया जायगा। इस तरह तर्कभूवल्लभ भट्टाकलङ्कदेव शशाङ्ककी कीर्तिकौमुदी उनके अकलङ्कन्यायकी ज्योत्स्नासे तर्करसिकोंके मानसको द्योतित करती हुई आज भी छिटक रही है । अकलङ्कका व्यक्तित्व इस तरह शिलालेखोल्लेख, ग्रन्थोल्लेख, समकालीन और परवर्ती आचार्योंपर प्रभाव और उनके ग्रन्थ आदि स्तम्भोंमें आई हुई चरचासे हम समझ सके हैं कि अकलङ्कदेव ई० ८ वीं सदीके युगनिर्माता महापुरुष थे। वे अनेक शास्त्रार्थोंके विजेता महान् वाग्मी थे और थे घटवादविस्फोटक सभाचतुर पंडित । कथाकोशमें उनके शास्त्रार्थोकी कथाका सार पाठक पढ़ ही चुके हैं। मल्लिषेण प्रशस्तिके 'राजन् साहसतुंग' श्लोकके गौरवपूर्ण उद्घोषसे ऐसा लगता है जैसे अकलङ्कके गलेकी विजयमाला अभी भी तरोताजी है । यह विजय इतनी बड़ी थी कि अकलङ्क जैसे वाचंयमीके मुखसे भी वह श्लोक निकलवा सकी। यह वह काल था जब धर्मकीर्तिके शिष्योंका समुदाय भारतीय दर्शनके रङ्गमञ्चपर छाया हुआ था और नैरात्म्यके नारोंसे आत्मदर्शन हिल उठा था । उस कालमें अकलङ्कदेवने भारतीय दर्शनकी हिलती हुई दीवालोंको थाँभा और इसी प्रयत्नमेंसे अकलङ्कन्यायका जन्म हुआ। उनके टीका ग्रन्थ और मौलिक कृतियाँ उनके गहन तत्त्वविचार उनकी सूक्ष्मतर्कप्रवणता तथा स्वतत्त्वनिष्ठाका पगपगपर दर्शन कराती हैं । वे बौद्धोंके विचारोंसे होनेवाली निरात्मकतासे जनजनकी रक्षा करनेकी करुणाबुद्धिसे ओतप्रोत थे और इसीलिये उनके सत्त्वप्रकोपके मूल लक्ष्य बौद्धाचार्य और बहुशः बौद्धाचार्य ही रहे हैं । वे उनके अश्लील परिहास और कटूक्तियोंका उत्तर भी बड़े मजेसे देते हैं-धर्मकीर्तिने जब प्रमाणवार्तिक' में अनेकान्तवादियोंको दही और ऊँटके अभेदप्रसङ्गका दूषण देकर कहा कि 'दहीकी जगह ऊँटको क्यों नहीं खाते ?' तब अकलङ्कदेव न्यायविनिश्चय में उसका सटीक उत्तर देते हुए लिखते हैं कि-'सुगत मृग (१) न्यायवि० श्लो० ३८३ । (२) तत्त्वार्थवा० ४।४२ । (३) अकलङ्कग्रन्थत्रय टि० पृ० १७०। (४) वही पृ० १४६-५४ । (५) “सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति ॥"-प्र० वा० ३।१८१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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