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ग्रन्थकार अकलङ्क : जन न्यायको देन
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इस तरह ये छह ग्रन्थ निश्चित रूपसे भट्टाकलङ्क देवकी कृति हैं । इनमें अकलङ्कके महान् पाण्डित्य के दर्शन होते हैं। परम्परागत प्रसिद्धिकी दृष्टिसे स्वरूपसम्बोधन, न्यायचूलिका, अकलङ्कप्रतिष्ठा पाठ, अकलङ्क प्रायश्चित्तसंग्रह और अकलङ्कस्तोत्र आदि भी अकलङ्कके नामपर दर्ज हैं। पर ये प्रसिद्ध अकलङ्ककी कृतियाँ नहीं हैं? पीछेके अकलङ्कनामधारी अन्य आचायोंकी हैं। अकलङ्क नामके अनेकों ग्रन्थकार हुए हैं जो सब इन् के बादके हैं।
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अकलङ्ककी जैन न्यायको देन : अकलङ्क न्याय -
भट्टाकलङ्क जैसे उद्भटवादी थे वैसे ही प्रतिभापुञ्ज ग्रन्थकार भी थे। उनके द्वारा लिखे गये ग्रन्थोंके परिचयसे उनकी अप्रतिहत लेखनीका चमत्कार स्वतः ज्ञात हो जाता है । अनेकान्तदृष्टि ओर स्याद्वादभाषाका अहिंसक उद्देश्य था समस्त मत-मतान्तरोंका नयदृष्टिसे समन्वयकर समताकी सृष्टि करना । अनेकान्तदर्शन के अन्तः यह रहस्य भी है कि हमारी दृष्टि वस्तुके पूर्णरूपको जान नहीं सकती, जो हम जानते हैं वह आंशिक सत्य है । हमारी तरह दूसरे मतवादियों के दृष्टिकोण भी आंशिक सत्यताकी सीमाको छूते हैं । इसीलिये उसमें यह शर्त लगाई गई कि जो दृष्टिकोण अन्य दृष्टियोंकी अपेक्षा रखता है उनकी उपेक्षा या तिरस्कार नहीं करता वही सच्चा नय है । और ऐसे नयोंका समूह ही अनेकान्तदर्शन है ।
इस पवित्र उद्देश्य से अनेकान्तदर्शन और स्याद्वादपर ही जैन परम्पराने अनेकों ग्रन्थ लिखे हैं । पर, ऐसा लगता है जैसे यह समन्वयकी दृष्टि अंशतः परपक्षखण्डनमें बदल गई है । यद्यपि किसी भी मतके ऐकान्तिक दृष्टिकोणकी आलोचना किये बिना उसकी सापेक्षताका प्रतिपादन अपनेमें पूर्ण नहीं हो सकता फिर भी जितना भार समन्वयपर दिया जाना चाहिए था उतना नहीं दिया गया । भट्टाकलङ्क उस शताब्दी के व्यक्ति हैं जब कि धर्मकीर्ति और उसके टीकाकार शास्त्रार्थोंकी धूम मचाये हुए थे । अतः अकलङ्क देव के दार्शनिक प्रकरणों में उस युगकी प्रतिक्रियाकी प्रतिध्वनि बराबर सुनाई देती है । वे जब भी अवसर पाते हैं। बौद्धों के तीक्ष्ण खण्डनमें नहीं चूकते। जब धर्मकीर्ति परिवारने जैन सिद्धान्तको अश्लील आकुलप्रलाप आदि कहना प्रारम्भ किया तो इनका अहिंसक मानस डोल उठा और उन्होंने इन परप्रहारोंसे जैनशाशनकी रक्षा करनेके हेतु सर्वप्रथम अपने सिद्धान्तों की व्यवस्था की ओर ध्यान दिया । उनकी जैनन्यायको देन इस प्रकार है
१. प्रमाणके लक्षण में 'अविसंवादि' पद
प्रमाण सामान्यके लक्षण में समन्तभद्र'ने 'स्वपरावभासक' और सिद्धसेन ने 'स्वपराभासि' पद देकर ऐसे ज्ञानको प्रमाण माननेकी ओर संकेत किया था जो स्व और परका अवभासक हो । यह उसका स्वरूपनिरूपण था | अकलङ्कदेवने प्रमाणके लक्षण में 'अविसंवादी' पद का प्रवेशकर ऐसे ज्ञानको प्रमाण कहा जो अविसंवादी हो । इस लक्षणमें उन्होंने 'स्व' पदपर जोर नहीं दिया; क्योंकि स्वसंवेदन ज्ञानसामान्यका धर्म है, प्रमाणज्ञानका ही नहीं । इसीलिये वे कहीं प्रमाण के फलभूत सिद्धिको 'स्वार्थ विनिश्चय' शब्द से व्यक्त करते हैं तो कहीं 'तत्त्वार्थ निर्णय" शब्दसे । यद्यपि अष्टशतीके लक्षण में 'अनधिगतार्थाधिगम' शब्दका प्रयोग किया गया है किन्तु इसपर उनका भार नहीं रहा; क्योंकि प्रमाणसंप्लव उपयोगविशेषमें इन्हें स्वीकृत है । इस तरह प्रमाणके लक्षण में 'अविसंवादि' पदका प्रयोग अकलङ्कदेवने ही सर्वप्रथम किया है ।
(१) देखो न्यायकुमुदचन्द्र प्र० प्रस्तावना पृ० ५७-५८ । (३) बृहत्स्व० श्लो० ६३ । (४) न्यायावतार श्लो० १ । (५) अष्टश० अष्टसह० पृ० १७५ । (६) सिद्धिवि० १।३ ।
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(२) वही, पृ० २५ ।
(७) प्रमाणसं० पृ० १।५ ।
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