SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० प्रस्तावना तृतीय प्रवचन प्रस्ताव में - प्रवचनका स्वरूप, सुगतके आप्तत्वका निरास, सुगतकै करुणावत्त्व तथा चतुरार्यसत्यप्रतिपादकत्वका परिहास, वेदके अपौरुषेयत्वका खण्डन, सर्वज्ञत्वसमर्थन, ज्योतिर्ज्ञानोपदेश सत्यस्वप्न और ईक्षणिकादि विद्या दृष्टान्तों द्वारा सर्वज्ञत्वकी सिद्धि, शब्दनित्यत्वनिरास, जीवादितत्त्वनिरूपण, नैरात्म्यभावनाकी निरर्थकता, मोक्षका स्वरूप, सप्तभङ्गीनिरूपण, स्याद्वाद में संशयादि दोषोंका परिहार, स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदिका प्रामाण्य और प्रमाणका फल आदि विषयोंपर प्रकाश डाला गया है । यह ग्रन्थ अकलङ्कग्रन्थत्रय तथा न्यायविनिश्चयविवरण में प्रकाशित है । ५. सिद्धिविनिश्चय प्रकृत ग्रन्थ, इसका विषय परिचय आदि इसी प्रस्तावना के ग्रन्थ विभाग में दिया जायगा । ६. प्रमाणसंग्रह - जैसा कि इसका नाम है वैसा ही यह ग्रन्थ वस्तुतः प्रमाणों - युक्तियों का संग्रह है । इस ग्रन्थकी भाषा और विषय दोनों ही जटिल और दुरूह हैं । यह ग्रन्थ प्रमेयबहुल है। ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ न्यायविनिश्चयके बाद बनाया गया है; क्योंकि इसके कई प्रस्तावों के अन्त में न्यायविनिश्चयकी अनेकों कारिकाएँ बिना किसी उपक्रम वाक्यके लिखी गई हैं। इसकी प्रौढ़ शैलीसे ज्ञात होता है कि यह अकलङ्कदेवकी अन्तिम कृति है और इसमें उन्होंने यावत् अवशिष्ट विचारके संग्रह करनेका प्रयास किया है, इसीलिये यह इतना गहन हो गया है । इसमें हेतुओं के उपलब्धि - अनुपलब्धि आदि अनेकों भेदोंका विस्तृत विवेचन है जबकि न्यायविनिश्चयमें मात्र उनका नाम ही लिया गया है । इसपर अनन्तवीर्यकृत प्रमाणसंग्रहभाष्य या प्रमाणसंग्रहालंकार टीका रही है । इसका उल्लेख स्वयं अनन्तवीर्यने ही किया है । इसमें ९ प्रस्ताव हैं तथा कुल ८७३ कारिकाएँ हैं। स्वयं अकलङ्कदेवने इन कारिकाओंके सिवाय एक पूरकवृत्ति लिखी है। इस प्रमाणसंग्रहका कुल प्रमाण अष्टशतीके बराबर ही है । प्रथम प्रस्ताव में प्रत्यक्षका लक्षण, श्रुतका प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वकत्व, प्रमाणका फल और मुख्य प्रत्यक्ष आदि प्रत्यक्षविषयक निरूपण है । द्वितीय प्रस्ताव में परोक्षके भेद स्मृति प्रत्यभिज्ञान और तर्कका वर्णन है । तृतीय प्रस्ताव में अनुमान और अनुमानके अवयव साधनादिके लक्षण, सदेकान्त आदिमें साध्यप्रयोगकी असम्भवता, सामान्यविशेषात्मक वस्तुकी साध्यतामें दिये जानेवाले संशयादि दोषोंका परिहार आदि निरूपित है । चतुर्थ प्रस्ताव में त्रैरूप्यका खण्डन कर अन्यथानुपपत्तिरूप एक हेतुका समर्थन, हेतुके उपलब्धिअनुपलब्धि आदि भेदोंका वर्णन तथा कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर आदि हेतुओं का समर्थन है । पंचम प्रस्ताव में विरुद्धादि हेत्वाभासों का निरूपण, सर्वथा एकान्त में सत्त्व हेतुकी विरुद्धता, सहोपलम्भ नियम हेतुकी विरुद्धता, विरुद्धाव्यभिचारीका विरुद्ध में अन्तर्भाव, अज्ञातका अकिञ्चित्कर में अन्तर्भाव आदि हेत्वाभासविषयक चरचा है । प्रस्ताव में वादका लक्षण, जयपराजय व्यवस्था, जातिका लक्षण आदि वादविषयक कथन है । अन्तमें धर्मकीर्ति आदिने अपने ग्रन्थों में प्रतिवादियोंको जिन जाड्य अह्रीक आदि अपशब्दों का प्रयोग किया है उन शब्दोंको प्रायः उन्हींको लौटाया गया है । * सप्तम प्रस्ताव में प्रवचनका लक्षण, सर्वज्ञताका समर्थन और अपौरुषेयत्वका खण्डन आदि प्रवचन सम्बन्धी विषय वर्णित हैं । अष्टम प्रस्ताव में सप्तभङ्गी तथा नैगमादि सात नयोंका कथन है । नवम प्रस्तावमें प्रमाण नय और निक्षेपका उपसंहार है । (१) सिद्धिवि० टी० पृ० ८, १०, १३० आदि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy