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ग्रन्थकार अकलङ्क : उनके ग्रन्थ
श्लोकोंकी तथा उसपरके गद्य भागकी कोई हस्तलिखित प्रति कहीं भी उपलब्ध नहीं हुई । वादिराज सूरिने इसपर एक न्यायविनिश्चय विवरण टीका बनाई है परन्तु इसमें केवल श्लोकोंका ही व्याख्यान किया गया है । अतः विवरणमेंसे एक-एक शब्द छाँटकर श्लोकोंका संकलन तो किया गया है, किन्तु गद्यभाग के संकलनका कोई साधन नहीं था अतः वह नहीं किया जा सका । पर गंद्य भाग था अवश्य; इसका एक अवतरण सिद्धिविनिश्चयटीकामें न्यायविनिश्चयके नामसे मिला है । न्यायविनिश्चय विवरणकार के ' वृत्तिमध्यवर्तित्वात् ' आदि वाक्य भी इसके साक्षी हैं । उस गद्यभागको संभवतः चूर्णि कहते थे क्योंकि वादिराजने न्यायविनिश्चय विवरणमें' 'तथा च सूक्तं चूर्णौ देवस्य वचनम्' लिखकर 'समारोपव्यवच्छेदात् ' श्लोक उद्धृत किया है । न्यायविनिश्चयमें वार्तिक अन्तरश्लोक और संग्रह श्लोक इस तरह तीन प्रकारके श्लोकोंका संग्रह है | जैसे 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः ' (१/३) श्लोक मूल वार्तिक है क्योंकि आगे इसी श्लोकगत पदोंका विस्तृत विवेचन है । वृत्तिके मध्य में यत्र तत्र आनेवाले श्लोक अन्तरश्लोक हैं तथा वृत्तिके द्वारा प्रदर्शित मूल वार्तिक के अर्थका संग्रह करनेवाले संग्रह श्लोक हैं | इसमें कुल ४८० || श्लोक हैं । न्यायविनिश्चयमें तीन प्रस्ताव हैं - प्रत्यक्ष अनुमान और प्रवचन । न्यायावतार में प्रत्यक्ष अनुमान और श्रुत इन तीन प्रमाणका वर्णन है और धर्मकीर्तिने प्रमाणविनिश्चयमें प्रत्यक्ष स्वार्थानुमान और परार्थानुमान तीन ही परिच्छेद रखे हैं, जो इनकी प्रस्ताव रचना के प्रेरक मालूम होते हैं ।
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प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव में - प्रत्यक्षका लक्षण, इन्द्रिय प्रत्यक्षका स्वरूप, प्रमाण सम्प्लव सूचन, चक्षुरादि बुद्धियों का व्यवसायात्मकत्व, विकल्पके अभिलापवत्त्व आदि लक्षणोंका खण्डन, ज्ञानको परोक्ष माननेका निराकरण, ज्ञानके स्वसंवेदनकी सिद्धि, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञाननिरास, साकारज्ञाननिराकरण, अचेतनज्ञाननिरास, निराकारज्ञान सिद्धि, संवेदनाद्वैतनिरास, विभ्रमवादनिरास, बहिरर्थसिद्धि चित्रज्ञानखण्डन, परमाणुरूप बहिरर्थका निराकरण, अवयवातिरिक्त- अवयवीका खण्डन, द्रव्यका लक्षण, गुण और पर्यायका स्वरूप, सामान्यका स्वरूप, अर्थके उत्पादादित्रयात्मकत्वका समर्थन, अपोहरूप सामान्यका निरास, व्यक्तिभिन्न सामान्यका निराकरण, धर्मकीर्तिसम्मत प्रत्यक्षलक्षणकी समालोचना, बौद्धकल्पित स्वसंवेदन-योगिमानसप्रत्यक्षनिरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षणकी आलोचना, नैयायिकसम्मत प्रत्यक्षलक्षणका निराकरण और अतीन्द्रिय प्रत्यक्षका लक्षण आदि विषयोंका विवेचन किया गया है ।
द्वितीय अनुमान प्रस्ताव में - अनुमानका स्वरूप, अनुमानकी बहिरर्थविषयता, साध्य - साध्याभासका स्वरूप, अन्य मतों में साध्यप्रयोगकी असम्भवता, शब्दका अर्थवाचकत्व, सङ्केतग्रहणका प्रकार, भूतचैतन्यवादकी समालोचना, गुणगुणिभेदका निराकरण, साध्य - साधनाभासके लक्षण, प्रमेयत्व हेतुकी अनेकान्तसाधकता, सत्त्व हेतुकी परिणामित्वप्रसाधकता, त्रैरूप्यखण्डनपूर्वक अन्यथानुपपत्तिसमर्थन, तर्ककी प्रमाणता, अनुपलम्भ हेतुका समर्थन, पूर्वचर उत्तरचर और सहचरहेतुका समर्थन, असिद्धादि हेत्वाभासोंका निरूपण, दूषणाभासका लक्षण, जातिका लक्षण, जयपराजयव्यवस्था, दृष्टान्त दृष्टान्ताभासविचार, वादका लक्षण, निग्रहस्थानका लक्षण और वादाभासका लक्षण आदि अनुमानप्रमाणसम्बन्धी विषयोंका वर्णन है ।
(१) इस संकलनके इतिहासके लिए देखो अकलंकग्रन्थत्रय प्रस्ता० पृ० ६ । (२) पृ० १४१
(३) " तदुक्तं न्यायविनिश्वये न चैतद् बहिरेव । किं तर्हि ? बहिः बहिरिव प्रतिभासते । कुत एतत् ? भ्रान्तेः, तदन्यत्र समानमिति । " - सिद्धिवि० टी० पृ० १४१ ।
प्र० भाग पृ० ३०१, ३९० ।
( ५ ) " निराकारेत्यादयोऽन्तरश्लोकाः वृत्तिमध्यवर्तित्वात् विमुखेत्यादिवार्तिकव्याख्यानवृत्तिग्रन्थमध्यवर्तिनः खल्वमी श्लोकाः । 'संग्रह श्लोकास्तु वृत्त्युपदर्शितस्य वार्तिकार्थस्य संग्रहपरा इति विशेषः । " -
न्यायवि० वि० प्र० पृ० २२९ ।
(६) न्यायवि० वि० प्र० प्रस्ता० पृ० ३४ ।
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