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प्रस्तावना
यह निश्चित है कि यह संज्ञा अनन्तवीर्यके कालसे तो अवश्य है; क्योंकि आगे के टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इसे एक लघीयस्त्रय मानकर ही उसपर अपनी न्यायकुमुदचन्द्र टीका बनाई है जिसे लघीयस्त्रयालंकार भी कहते हैं ।
इस ग्रन्थमें तीन प्रवेश हैं -१ प्रमाणप्रवेश २ नयप्रवेश और ३ प्रवचन प्रवेश । लघीयस्त्रयमें कुल ७८ मूल कारिकाएँ हैं । नयप्रवेश' के अन्त में 'मोहेनैव परोऽपि' श्लोक पाया जाता है, किन्तु इसका व्याख्यान न तो न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रभाचन्द्रने ही किया है और न लघीयस्त्रयकी तात्पर्यवृत्ति में अभयचन्द्रने ही, अतः इसे प्रक्षिप्त मानना चाहिए । इस श्लोककी मूल ग्रन्थके साथ कोई अर्थमूलक संगति भी नहीं है । अकलंकदेवने स्वयं लघीयस्त्रय पर एक विवृति लिखी है । यह विवृति कारिकाओंकी व्याख्यारूप न होकर उसमें सूचित विषयोंकी पूरक है । अकलंकने यह विवृति श्लोकोंके साथ ही लिखी है क्योंकि वे जो पदार्थ कहना चाहते हैं उसके अमुक अंशको श्लोक में कहकर शेषको विवृतिमें कहते हैं अतः उसका नाम वृत्ति न होकर विवृति अर्थात् विशेष विवरण ही उपयुक्त रखा गया है । विषय की दृष्टि से पद्य और गद्य मिलकर ही ग्रन्थकी अखण्डता बनाते हैं । धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिकके स्वार्थानुमान परिच्छेदपर जो वृत्ति लिखी है वह भी इसी प्रकारकी पूरक वृत्ति है । अकलंकके प्रमाणसंग्रहके अध्ययनसे हमें इस बातकी प्रतीति हो जाती है कि उनका
भाग शुद्ध वृत्ति नहीं कहा जा सकता । शुद्ध वृत्ति में तो मूलश्लोककी मात्र व्याख्या ही होनी चाहिए, पर लघीयस्त्रयकी विवृति और प्रमाणसंग्रहके गद्यभागमें व्याख्यात्मक अंश नहींके बराबर हैं । प्रभाचन्द्र ने इसे विवृति ही माना है क्योंकि जब वे गद्यभागका व्याख्यान करते हैं तब 'विवृतिं विवृण्वन्नाह' ही लिखते हैं | लघीयस्त्रयमें ६ परिच्छेद है । इनमें चर्चित मुख्य विषय इस प्रकार हैं
प्रथमपरि० में सम्यग्ज्ञानकी प्रमाणता, प्रत्यक्ष परोक्षके लक्षण, प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और मुख्य दो भेद, सांव्यवहारिक इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद, सांव्यवहारिकके अवग्रहादि भेद, पूर्व पूर्व - ज्ञानोंकी प्रमाणता तथा उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी फलरूपता आदिका विवेचन है ।
द्वितीयपरि० में द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुकी प्रमेयरूपता, नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्तमें अर्थक्रियाका अभाव आदि प्रमेय सम्बन्धी चरचा है ।
तृतीयपरि० में मति स्मृति संज्ञा चिन्ता तथा अभिनिबोध आदिका शब्दयोजनासे पूर्व अवस्था में मतिव्यपदेश तथा शब्दयोजनाके बाद श्रुतव्यपदेश, स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमानका परोक्षत्व, प्रत्यभिज्ञानमें उपमानका अन्तर्भाव, कारण पूर्वचर और उत्तरचर हेतुओंका समर्थन, अदृश्यानुपलब्धिसे भी अभावकी सिद्धि और विकल्पबुद्धिकी वास्तविकता आदि परोक्षप्रमाण सम्बन्धी विषयोंकी चरचा है ।
चतुर्थपरि० में किसी भी ज्ञानमें ऐकान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणताका निषेध करके प्रमाणाभासका स्वरूप, श्रुतकी प्रमाणता और शब्दों का अर्थवाचकत्व आदि आगमप्रमाण सम्बन्धी विषयोंका विचार है ।
पचमपरि० में नय दुर्णयके लक्षण, नयोंके द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक आदि भेद, नैगमादिनयोंमें अर्थनय और शब्दनयका विभाग आदि नयपरिवारका विवेचन है ।
छठे प्रवचन प्रवेश में फिर प्रमाण और नयका विचार है । अर्थ और आलोककी ज्ञानकारणता का खंडन, सकलादेश-विकलादेश विचार और निक्षेपका फल आदि प्रवचन के अधिगमोपायभूत प्रमाण नय और निक्षेपका निरूपण किया गया है।
इस तरह अकलंकदेवकी यह पहिली दार्शनिक और मौलिक रचना है । यह अकलङ्क ग्रन्थत्रयमें प्रकाशित हो गई है ।
४. न्यायविनिश्चय सवृत्ति -
धर्मकीर्तिके प्रमाणविनिश्चयकी तरह न्यायविनिश्चयकी रचना भी गद्यपद्यमय रही है । इसके मूल
(१) न्यायकुमु० पृ० २१२ आदि, परिच्छेद समाप्तिकी पुष्पिकाएँ ।
(२) लघी० प० १७ ।
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