SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ प्रस्तावना ५. सिद्धसेनगणि ई० ८ वीं सदीके विद्वान् हैं। उन्होंने अकलङ्कके सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख किया है इसलिये अकलङ्कको ७ वीं सदीका होना चाहिए। ६. हरिभद्र ( ई० ७००-७७० ) ने अनेकान्तजयपताकामें अकलङ्कन्याय शब्दका प्रयोग किया है तथा उन पर अकलङ्कका प्रभाव है अतः अकलङ्कको उनसे पूर्व होना चाहिए। .७. जिनदासगणि महत्तर (ई० ६७६ ) ने निशीथचूर्णिमें सिद्धिविनिश्चयका दर्शनप्रभावक ग्रन्थों में उल्लेख किया है अतः अकलङ्क को ७वीं के मध्यमें होना चाहिए। हमारी विचारणा ___ अकलङ्कदेवके ग्रन्थों के अन्तःपरीक्षण तथा बाह्य साक्ष्यों के आधारसे अकलङ्कदेवका समय ई० ७२०-७८० तक सिद्ध किया जा चुका है। उसमें अब तक जो नई बातें और ज्ञात हो सकी हैं उनसे हमें अपने निर्धारित समयकी दृढ़ प्रतीति ही हुई है । यह समय वही है जिसे स्व० डॉ० पाठकने निर्धारित किया था तथा डॉ. विद्याभूषण और प्रेमीजी आदि जिसका समर्थन करते रहे हैं। इन विद्वानोंकी कुछ युक्तियाँ बाधित हो गई हैं पर इनके निष्कर्ष में बाधा नहीं आई। कई अन्य विद्वानों तथा डॉ० सालेतोर ने भी अपने 'दी एज ऑफ गुरु अकलङ्क' लेखमें हमारे विचारोंको मान्यता दी है। ___ यहाँ ७ वीं सदी माननेवालोंकी उन सभी युक्तियोंपर क्रमशः विचार प्रस्तुत किया जा रहा है । जिससे बाधकोंका निराकरण होकर अकलङ्कका समय ई० ७२०-७८० निर्बाध सिद्ध होता है। (१) यह पहिले लिखा जा चुका है कि प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशमें राजधानीका नाम मान्यखेट इसलिये लिखा गया है कि उस समय साधारणतया राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मान्यखेट रूढ हो गई थी। राष्ट्रकूट नाम आते ही 'मान्यखेटोंके राष्ट्रकूट' यह बोध होने लगा था। अतः प्रभाचन्द्रने राजधानी मान्यखेट लिख दिया है । इतने मात्रसे कथाकोश अप्रामाणिक नहीं ठहर सकता । (२) मल्लिषेण प्रशस्ति', जिसमें 'राजन् साहसतुंग' उल्लेख है, श्रवणबेलगोलाके चन्द्रगिरि पर्वतकी पाश्वनार्थ वसतिके एक स्तम्भपर खुदी हुई है। शक संवत् १०५० (११२८) में मल्लिषेण मुनिने शरीरत्याग किया था, उन्हींको स्मृतिमें यह प्रशस्ति खोदी गई थी। इसमें क्रमशः महावादी समन्तभद्र, महाध्यानी सिंहनन्दि, षण्मासवादी वक्रगीव, नव स्तोत्रकारी वज्रनन्दि, त्रिलक्षणकदर्थनके कर्त्ता पात्रकेसरिगुरु, सुमतिसप्तकके रचयिता सुमतिदेव, महाप्रभावशाली कुमारसेन, मुनिश्रेष्ठ चिन्तामणि, दण्डिके द्वारा स्तुत कविचूडामणि श्रीवर्धदेव और सप्तति महावादविजेता महेश्वर मुनिके वर्णनके बाद घटावतीर्ण तारादेवीके विजेता अकलङ्कदेवका स्तवन किया गया है । यहीं स्वयं अकलङ्कदेवके मुखसे अपनी निरवद्यविद्याके विभवका वर्णन इस प्रकार दिया है"चूर्णिः-यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्यनिरवद्यविद्याविभवोपवर्णनमाकर्ण्यते ॥ राजन् साहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः, किन्तु त्वत्सदृशा रणे विजयिनः त्यागोन्नता दुर्लभाः। तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो नानाशास्त्रविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ॥ २१ ॥ नमो मल्लिषेणमलधारिदेवाय ॥ (१) न्यायकुमु० प्र० भाग प्रस्ता० पृ० १०४। (२) वही पृ० १०५ । (३) पं० जुगलकिशोर मुख्तार-अनेकान्त वर्ष १ अंक १ । न्यायकुमु० प्र० भाग प्रस्ता० पृ० १०५ । (४) अकलङ्क ग्रन्थत्रय प्रस्ता० पृ० १३-३२।। (५) तत्त्वोप०, जैनतर्कवा० और हेतुबि० टी० की प्रस्ता० । (६) बम्बई हि. सो० जर्नल भाग ६ पृ० १०-३३ । (७) पृ० १४ ।। (6) जैन शि० भाग १ पृ० १०१ । लेख नं० ५४ (६७)। ए० क. भाग २ नं० ६७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy