________________
ग्रन्थकार अकलङ्क: समयनिर्णय
४७
(पूर्वमुख)
राजन् सर्वारिदर्पप्रविदलनपटुस्त्वं यथात्र प्रसिद्धस्तद्वत्ख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिलमदोत्पाटनः पण्डितानाम् । नो चेदेषोऽहमेते तव सदसि सदा सन्ति सन्तो महान्तो वक्तुं यस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेषशास्त्रो यदि स्यात् ॥ २२ ॥ नाहङ्कारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्ध्या मया। राशः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो बौद्धौघान् सकलान्विजित्य सुगतः (स घटः) पादेन विस्फोटितः ॥ २३ ॥"
प्रशस्तिमें इन श्लोकोंको प्रशस्तिकारने उद्धृत किया है । इससे ज्ञात होता है कि ये श्लोक प्रशस्तिके रचनाकालसे पहिले के हैं। इनमें वर्णित घटनाओंसे अकलङ्कदेवका साहसतुङ्ग राजाकी सभामें जाकर वादियोंको ललकारने और हिमशीतल राजाकी सभामें शास्त्रार्थके समय घड़ेको फोड़नेकी बातका समर्थन होता है।
इसी प्रशस्तिमें आगे अकलङ्कदेवके सधर्मा पुष्पसेन मुनिकी स्तुति है । तदनन्तर पत्रवादी विमलचन्द्र और इन्द्रनन्दिके वर्णनके बाद घटवादघटाकोटिकोविद परवादिमल्लदेवका स्तवन किया गया है। यहाँ भी उन्हींके मुखसे शुभतुङ्गकी सभामें अपने नामकी सार्थकता इस प्रकार बतलवाई गई है
"चूर्णिः-येनेयमात्मनामधेयनिरुक्तिरुक्ता नाम पृष्टवन्तं कृष्णराज प्रति ॥ गृहीतपक्षादितरः परः स्यात् तद्वादिनस्ते परवादिनः स्युः।
तेषां हि मल्लः परवादिमल्लः तन्नाम मन्नाम वदन्ति सन्तः ॥ २९॥"
इस प्रशस्तिमें अकलङ्कदेवके वर्णनसे पदवादिमल्ल तकका उक्त वर्णन अपनी ऐतिहासिक विशेषता भी रखता है । इसमें अकलङ्कका साहसतुङ्गकी सभामें वादियोंको शास्त्रार्थके लिए ललकारना और परवादिमल्लका शुभतुङ्गकी सभामें अपने नामका अर्थ वर्णन करना इस बातका साक्षी है कि प्रशस्तिकार इन दो राजाओंको पृथक् समझते थे। इस प्रशस्ति (ई० ११२८) से पहिले प्रभाचन्द्रके (ई० ९८०-१०६५) गद्य कथाकोशमें हिमशीतलकी सभामें हुए शास्त्रार्थकी चरचा' तो है पर उनके साहसतुङ्गकी सभामें जानेका कोई उल्लेख नहीं है।
___ जहाँ कि ज्ञात हो सका है शुभतुङ्ग नृपतुङ्ग जगतुङ्ग आदि तुङ्गान्त उपाधियोंको राष्ट्रकूटवंशी नरेशोंने ही धारण किया था | कृष्णराज प्रथमकी उपाधि शुभतुङ्ग थी यह तो शिलालेखोंमें उत्कीर्ण उन्हींकी प्रशस्तियोंसे ज्ञात होता है । मल्लिषेण प्रशस्तिमें ग्रन्थकारों और व्यक्तियोंका जिस पौर्वापर्यसे वर्णन किया गया है उसमें कोई बाधक देखनेमें नहीं आया। प्रशस्तिगत 'राजन् साहसतुंग' श्लोकमें साहसतुंगको महापराक्रमी रणविजयी और त्यागोन्नत बताया है। यह तो प्राप्त अभिलेखोंसे इतिहासप्रसिद्ध है कि "दन्तिदुर्गने (ई० ७४८-७५३) के बीच सोलङ्की (चालुक्य) कीर्तिवर्मा (द्वितीय) के राज्यके उत्तरी भाग वातापीपर अधिकार कर दक्षिणमें फिर राष्ट्रकूट राज्यकी स्थापना की थी। शकसंवत् ६७५ (ई० ७५३) के सामनगढ (कोल्लापुर) के 'दानपत्रमें इसके पराक्रमका वर्णन इस प्रकार किया है
(१) देखो पृ० १५ । इसका उल्लेख न्यायमणिदीपिका पृ० १ में भी है।
(२) "......श्री कृष्ण (ष्ण) राजस्य" शुभतुंगतुंगतुरगप्रवृद्धरेवर्धरुद्धरविकिरणम्"- ए. ई. भाग ३ पृ० १०६।
"विषमेषु विषमशोको यस्त्यागमहानिधिदरिद्रेषु ।
कान्तासु वल्लभतरः ख्यातः प्रणतेषु शुभतुङ्गः ॥" -ए. इ. भाग १४ पृ० १२५ । (३) भारतके प्राचीन राजवंश भाग ३ पृ. २६॥ (४) इ० ए० भाग ११ पृ० १११॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org