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________________ ग्रन्थकार अकलङ्क समयनिर्णय डॉ० ए० एस० आल्तेकर, श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी', पं० सुखलालजी', डॉ० बी० ए० सालेतोर', म० म० पं. गोपीनाथ कविराज आदि विद्वान् हैं । (२) दूसरा मत है अकलङ्कदेवको ईसाकी सातवीं शताब्दीका विद्वान् माननेका । इसका मूल आधार है-अकलङ्ग चरितका विक्रमार्कशकाब्दीय श्लोक । इस इलोकका विक्रमसंवत ७०० अर्थ मानकर अकलङ्कका समय ईसाकी ७ वीं शताब्दी माननेवालोंमें आर० नरसिंहाचार्य, प्रो० एस० श्रीकण्ठ शास्त्री, पं० जुगलकिशोर मुख्तार', डा० ए० एन० उपाध्ये, पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और डा. ज्योतिप्रसादजी आदि हैं । प्रथम ८ वीं शताब्दी माननेवालोंकी मुख्य अबाधित युक्तियाँ इस प्रकार हैं (१) प्रभाचन्द्रके गद्य कथाकोशमें अकलङ्कको राजा शुभतुङ्गके मन्त्रीका 'पुत्र कहा है अतः अकलङ्क शुभतुङ्गके समकालीन है। (२) चन्द्रगिरि पर्वत पर पार्श्वनाथ बस्तिमें उत्कीर्ण एक स्तम्भलेख जिसे मल्लिषेण प्रशस्ति भी कहते हैं, अकलङ्कका साहसतुङ्गकी सभामें अपने हिमशीतलकी राजसभामें हुए शास्त्रार्थकी बात कहना । यह साहसतुङ्ग दन्तिदुर्ग द्वितीय ( ई० ७४४ से ७५६ ) हो सकता है | (३) अकलङ्क चरितमें शक संवत् ७०० (ई० ७७८ ) में अकलङ्कके शास्त्रार्थका यह उल्लेख" "विक्रमार्कशकाब्दीय शतसप्तप्रमाजुषि । कालेऽकलङ्क यतिनो बौद्धैर्वादो महानभूत् ॥" द्वितीय ७ वीं शताब्दी माननेवालोंकी मुख्य युक्तियाँ इस प्रकार हैं १. गद्यकथाकोशमें शुभतुङ्गकी राजधानी मान्यखेट लिखा है, और चूँकि मान्यखेट राजधानीकी स्थापना राष्ट्रकूटवंशीय अमोघवर्षने ई० ८१५ के आसपास की थी अतः कथाकोशका वर्णन प्रामाणिक नहीं है। २. साहसतुंग दन्तिदुर्गका उपनाम या विरुद था यह अनुमान मात्र है । ३. अकलङ्क चरितमें आए हुए श्लोकका विक्रमार्कपद विक्रम संवत्का बोधक है। ४. वीरसेनाचार्य जैसे सिद्धान्त पारगामीने धवला टीका ( समाप्ति काल ई० ८१६ ) में अकलङ्कदेवके राजवातिकके अवतरण आगम प्रमाणके रूपमें उद्धृत किये हैं । अतः अकलङ्कको बहुत पहिले सातवीं शताब्दी में होना चाहिए। (१) दी राष्ट्रकूटाज़ एण्ड देअर टाइम्स पृ. ४०९ । (२) जैन हितैषी भाग ११ अङ्क ७८। (२) अकलङ्कग्रन्थत्रय प्राक्कथन पृ० १०॥ न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भाग, प्राकथन पृ० १६॥ (१) मिडिवल जैनि० पृ. ३५। (५) 'अय्युत' वर्ष ३ अंक ४। (६) इंस्क्रि० एट श्रवणबेलगोला द्वि० सं० की भूमिका । (७) ए० भा० ओ० रि० इं० भाग १२ में 'दी एज ऑफ शंकर' शीर्षक लेख । () जैनसा० और इतिहासपर विशद० पृ० ५४१ । (९) 'डॉ पाठकाज न्यू ऑन अनन्तवीर्याज़ डेट' लेख, ए. भा० ओ० रि० ई० भाग १३ पृ० १६१॥ (१०) न्यायकुमु० प्र० भाग प्रस्ता० पृ० १०५।। (११)'ज्ञानोदय' अंक १७ नवम्बर १९५०, 'अकलत परम्परा के महाराज हिमशीतल' लेख। (१२) डॉ० पाठक-ए० भा० ओ० रि० इं० भाग १ पृ० १५५। (३) वही । (१४) वही । (१५) पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री-न्यायकुमुदचन्द्र प्र० भाग प्रस्तावना पृ० १०४। (१६) डॉ० उपाध्ये-ए० भा० ओ० रि० ई० भाग १२ पृ. ३.३। (१०) वही । (१८) वही । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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