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________________ ४४ प्रस्तावना वाङ्मयके उद्धरण तो हैं ही, गुरुतत्त्वविनिश्चयमें मलयगिरिकृत अकलङ्ककी समालोचनाका सयुक्तिक उत्तर भी है। इन्होंने अष्टशती के भाष्य अष्टसहस्री पर अष्टसहस्री-विवरण रचकर अकलङ्क न्यायको समुज्ज्वल किया है । इनके सिवाय वादीभसिंहकी स्याद्वादसिद्धि' वसुनन्दिकी आप्तमीमांसावृत्ति, गुणरत्नकी षड्दर्शनसमुच्चय बृहद्वृत्ति, मल्लिषेणकी स्याद्वादमंजरी, भावसेनके विश्वतत्त्वप्रकाश, नरेन्द्रसेनकी प्रमाणप्रमेयकलिका, अजितसेनकी न्यायमणिदीपिका (प्रमेयरत्नमाला टीका) और चारुकीर्ति पण्डिताचार्यके प्रमेयरत्नमालालङ्कार आदि में भी अकलङ्क-न्यायके शुभ्र दर्शन होते हैं। अकलङ्क का समय निर्णय पूर्वनिर्दिष्ट शिलालेखोल्लेखोंमें अकलङ्कदेवका प्राचीनतम उल्लेख ई० १०१६ के शिलालेखमें है। ग्रन्थकारोंकी तुलनासे यह ज्ञात होता है कि उनकी पूर्वावधि धर्मकीर्ति तथा उनके शिष्य परिवारका समय है। यह समय ई. ७ वीं का उत्तरार्ध और ८ वीं का पूर्वार्ध है । विशेष कर शान्तरक्षित (ई० ७६२ ) का समय ही अकलङ्ककी निश्चित पूर्वावधि है। उत्तरावधिके लिये उनके प्रसिद्ध टीकाकार आ० विद्यानन्दका समय (ई० ७७५-८४०) तथा प्राचीन उल्लेख करनेवाले कवि धनञ्जय (ई० ८ वीं) और आचार्य वीरसेन ( ई० ७४८-८१३) का समय है। इस तरह अकलङ्कदेवके समयकी शताब्दी ई० ८ वीं सुनिश्चित हो जाती है। ___ अब उनके समयके सम्बन्धमें जो विचार किया जा चुका है तथा जो नये प्रमाण उपलब्ध हुए हैं उनके प्रकाशमें शताब्दी के दशक निश्चित करने का प्रयत्न किया जा रहा है । अकलङ्कदेवके समयके सम्बन्धमें अब तक जिन विद्वानोंने ऊहापोह किया है उनके मत दो भागोंमें बाँटे जा सकते हैं (१) पहिला मत अकलङ्कदेवको ईसाकी आठवीं शताब्दीके उत्तरार्धका विद्वान् माननेका है । यह मत स्व. डॉ० के० बी० पाठकका है । इसके समर्थक स्व० डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण, स्व० डॉ० आर० जी० भाण्डारकर', पिटर्सन', लुइस राइस', डॉ. विंटरनिटज', डॉ० एफ० डब्ल्यू थॉमस', डॉ० ए० बी० कीथ, (१) स्याद्वादसि० प्रस्ता० पृ० १९। यदि ये अकलङ्कके सधर्मा पुष्पसेनके ही शिष्य हैं तो ये अकलङ्कके भी लघुसमकालीन हो सकते हैं। (२) इनकी आप्तमीमीमांसावृत्ति पर अष्टशतीका पूरा प्रभाव है। विद्यानन्दकी अष्टसहनी (पृ० २९५) के उल्लेखानुसार 'जयति जगति' आदि श्लोक कोई आप्तमीमांसाका मंगल मानते हैं। वसुनन्दिने अपनी वृत्तिमें इसे समन्तभद्र कृत तथा आत्ममीमांसाका अन्तिम श्लोक माना है। यदि विद्यानन्द 'केचित्' पदसे इन्हींका निर्देश कर रहे हैं तो इनका समम ई० ९ वीं सदी का प्रारम्भ होना चाहिए। (३) 'भर्तृहरि और कुमारिल'लेख,जनल बम्बई ब्राँच रायल एशि० सोसाइटी भाग १८ सन् १८९२ । (४) हि० इ० ला० पृ० १८६ । (५) ए. भा० ओ० रि० इं० भाग ११ पृ० १५५ में प्रकाशित 'शान्तरक्षिताज़ रिफरेंसेस् टु कुमारिलाज़ अटैक्स ऑ० समन्तभद्र एण्ड अकलङ्क' शीर्षक लेख । (६) पिटर्सन-द्वितीय रिपोर्ट सर्च ऑफ दी मैन्यु० पृ० ७९ । (6) राइस०-जर्नल रायल एशि० सो० भाग १५ पृ० २९९ । (८) हि० इ० लि. भाग २ पृ. ५८८ । (९) प्रवचनसार अंग्रेजी अनुवादकी प्रस्ता० (जैन लिट. सो० सीरीज नं० । केम्ब्रिज)। (१०) हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिट० पृ० ४९७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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