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________________ ग्रन्थकार अकलङ्क : तुलना शान्तिसूरि वार्तिककार आचार्य शान्तिसूरि' ( ई० ९९३ - १०४७) ने जैनतर्क वार्तिकमें' न्यायविनिश्चय के 'भेदज्ञानात्' श्लोकको' तथा सिद्धिविनिश्चयके 'असिद्धः सिद्धसेनस्य' श्लोकको थोड़े परिवर्तन के साथ ले लिया है । इन्हींने अकलङ्कके 'त्रिधा श्रुतमविप्लवम्' इस प्रमाणसंग्रहीय मतकी आलोचना की है। शेष के लिये देखो न्यायावतारसूत्र वार्तिक तुलना' में न्यायविनिश्चय और लघीयस्त्रय के अवतरण । वादिराज स्याद्वाद विद्यापति वादिराज सूरि ( ई० १०२५ ) न्यायविनिश्चयके प्रख्यात विवरणकार हैं । ये अकलङ्कवाङ्मय गंभीर अभ्यासी रहे हैं और इन्होंने न्यायविनिश्चय विवरणमें श्लोकोंके चार पाँच अर्थ तक किये हैं। गूढार्थ अकलङ्कवाङ्मय रूपी रत्नोंको अगाध भूमिसे इन्होंने अनन्तवीर्यके वचनदीपकी सहायता से खोजा और पाया था । इन्होंने अकलङ्कके समग्र वाङ्मयसे उद्धरण लिये हैं तथा उनकी स्थापित प्रमाणपद्धतिका समर्थन किया है । प्रभाचन्द्र सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ( ई० ९८० - १०६५) ने अकलङ्कदेव के लघीयस्त्रयपर लघीयस्त्रयालङ्कार- न्यायकुमुदचन्द्र नामकी १८ हजार श्लोक प्रमाण टीका रची है। इन्होंने अकलङ्कन्यायका अनन्तवीर्यकी उक्तियों से शतशः अभ्यास और विवेचन किया है । इनके सुप्रसन्न न्यायकुमुदचन्द्र नामके टीकाग्रन्थ और प्रमेयकमलमार्तण्ड में अकलङ्कवाङ्मय आधारभूत दीपस्तम्भ रहा है । इन्होंने अकलङ्कके चरणोंमें अपनी श्रद्धाञ्जलि बड़ी विनम्रतासे चढ़ाई है । इनकी आत्मानुशासन तिलक टीका " में न्यायविनिश्चय' का 'भेदज्ञानात् प्रतीयेते' श्लोक उद्धृत है । अनन्तवीर्य प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य ( ई० ११ वीं ) ने प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्डके अनन्तर अकलङ्कवाङ्मयोद्धृत परीक्षामुखपर प्रमेयरत्नमाला टीका बनाई है । इन्होंने प्रमेयरत्नमाला ( ३।५ ) में लघीयस्त्रय" तथा न्यायविनिश्चय को उद्धृत किया है । इन्होंने अकलङ्कोक्त न्यायका श्रद्धापूर्वक समर्थन किया है । वादिदेवसूर स्याद्वादरत्नाकरकार वादि देवसूरि" ( ई० १०८६ - ११३०) ने अकलङ्क वचनाम्भोधिसे उद्धृत परीक्षा मुखसूत्र के आधार से प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारकी रचना की है तथा उसकी स्याद्वादरत्नाकर - टीका (१) जैनतर्कवा० प्रस्ता० पृ० १५१ । Jain Education International ४१ (२) पृ० ११० । (६) श्लो० २ । (५) पृ० ५३ । (४) श्लो० ६।२१ । (८) जैनतर्कवा ० पृ० २९७ ॥ (९) देखो न्यायवि० वि० दोनों भागकी प्रस्तावनाओं का ग्रन्थ विभाग और टिप्पण । (१०) विस्तृत विवरण देखो - न्यायकुमु० द्वि० प्रस्ता० । (११) लिखित, श्लो० १७२ की टीकामें । (१२) लो० १।११४ । (१३) न्यायकुमु० द्वि० प्रस्ता० पृ० ३५ । (१५) प्रमेयरत्नमा० ३।१५ में न्यायवि० १।१२ । (१६) विस्तृत परिचय देखो - न्यायकुमु० द्वि० भाग प्रस्ता० पृ० ४१ । (३) लो० १।११४ । (७) पृ० ७४ । (१४) श्लो० १९-२० ॥ For Personal & Private Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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