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________________ · ४२ प्रस्तावना भी स्वयं ही लिखी है । इनके प्रमाणनयतत्त्वा० सूत्र में लघी० स्ववृत्तिके वाक्य उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं । स्याद्वादरत्नाकर में इन्होंने अकलङ्कके सिद्धिविनिश्चयका एक वाक्य उद्धृत किया है । इन्होंने अकलङ्क और अकलङ्ककै टीकाकारोंके वाक्यरत्नोंसे रत्नाकरकी खूब वृद्धि की है। इन्होंने अकलङ्क न्यायकी मूल व्यवस्थाओंको स्वीकार करके हेतुके भेद प्रभेद आदि में उसका विस्तार भी किया है । हेमचन्द्र कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि ( ई० १०८८ - ११७३) को अकलङ्कवाङ्मय में सिद्धिविनिश्चय बहुत प्रिय था । इसमेंसे उन्होंने प्रमाणमीमांसा में दो श्लोक उद्धृत किये हैं । अकलङ्कदेव के द्वारा प्रतिष्ठापित अकलङ्कन्यायके ये समर्थक और विवेचक थे । मलयगिरि सुप्रसिद्ध आगमटीकाकार आ० मलयगिरि ( ई० ११ वीं १२ वीं) हेमचन्द्र के सहविहारी थे । इन्होंने आवश्यक निर्युक्ति' टीका में अकलङ्कदेव के 'नयवाक्यमें भी स्यात् पदका प्रयोग करना चाहिए' इस सिद्धान्तसे असहमति प्रकट की है। इसी प्रसङ्गमें उन्होंने लघीयस्त्रय स्वविवृति ' से 'नयोऽपि तथैव सम्य गेकान्तविषयः स्यात्' यह वाक्य उद्धृत किया है । अकलङ्कदेवने प्रमाणवाक्यकी तरह नयवाक्य में भी नयान्तरसापेक्षता दिखाने के लिये 'स्यात्' पदके प्रयोगकी आवश्यकता बताई है। आ० मलयगिरिका कहना है कि यदि नयवाक्य में 'स्यात्' पदका प्रयोग किया जाता है तो वह 'स्यात्' शब्द से सूचित अन्य अशेष धर्मोंको विषय करनेके कारण प्रमाणवाक्य ही हो जायगा । इनके मत से सभी नय मिथ्यावाद हैं । किन्तु जब अकलङ्कोक्त व्यवस्थाका समर्थन अन्य सभी विद्यानन्द आदि आचार्योंने किया तो उपाध्याय यशोविजयजीने तदनुसार ही इसका उत्तर गुरुतत्त्वविनिश्चय में दे दिया है कि नयवाक्य में 'स्यात् ' पदका प्रयोग अन्य धर्मोंका मात्र सद्भाव द्योतन करता है उन्हें प्रकृत वाक्यका विषय नहीं बनाता । मलयगिरि द्वारा की गई यह आलोचना इन्हीं तक ही सीमित रही है । चन्द्रसेन आ० चन्द्रसेन ( ई० १२ वीं) ने उत्पादादि सिद्धि प्रकरण में सिद्धिविनिश्चयका 'न पश्यामः' श्लोक' उद्धृत किया है। रत्नप्रभ आचार्य रत्नप्रभ ( ई० १२ वीं) वादिदेवसूरि के ही शिष्य थे । इन्होंने अपनी रत्नकरावतारिका में अकलङ्कदेव के प्रति 'प्रकटिततीर्थान्तरीयकलङ्को कलङ्कः' लिखकर बहुमान प्रकट किया है। इन्होंने उसमें लघीयस्त्रयकै श्लोक भी यथास्थान उद्धृत किये हैं" । (१) १४, २/३ और २।१२ में का० ३, ४ और ५ की स्ववृत्तिके वाक्य | (२) पृ० ६४१ । (३) पृ० १२ में सिद्धिवि० ८/२ और ८|३ | (४) पृ० ३७१ क० । (५) श्लो० ६२ । (७) जैन सा० सं० इ० पृ० २७५ । (१०) स्या० रत्ना० पृ० ११३७। Jain Education International (६) पृ० १७ ख० । (८) पृ० ७१ । (९) सिद्धिवि० २।१२ । (१०) रत्नाकराव ० ३।१३ में इलो० १९-२०। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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