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ग्रन्थकार अकलङ्क: तुलना
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शान्तभद्र और अकलङ्क
प्रो० दलसुख मालवणियाँने न्यायबिन्दु-धर्मोत्तरप्रदीपकी प्रस्तावना (पृ०५२) में शान्तभद्रकी टीका भी न्यायबिन्दुपर थी इसे सप्रमाण सिद्ध किया है । धर्मोत्तरप्रदीपमें 'शान्तभद्र और विनीतदेवकी टीकाओंसे लम्बेलम्बे अवतरण देकर धर्मोत्तरने उनका खण्डन किया है । धर्मोत्तरका समय ई० ७०० है, अतः शान्तभद्रको भी धर्मोत्तरका वृद्ध समकालीन मानना चाहिए ।
शान्तभद्रका मानस प्रत्यक्षके सम्बन्धमें अपना मत यह था कि-पहिले चक्षु रूपमें चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न करता है फिर चक्षुर्विज्ञान अपने समकालीन रूपक्षणके साथ मिलकर तीसरे क्षणमें मानस प्रत्यक्षको उत्पन्न करता है । शान्तभद्रने इस प्रकारके मानसप्रत्यक्षके सद्भावमें प्रमाण यह दिया है कि यदि मानसप्रत्यक्ष न माना जाय तो मानसप्रत्यक्षसे होनेवाले विकल्प न होंगे और इस तरह रूपादि व्यवहार न हो पायगा । 'चक्षुरादिविज्ञानसे अनुभूत हो जानेके कारण रूपादि विकल्प हो सकेंगे' यह मत सन्तानभेद हो जानेके कारण उचित नहीं है। अतः रूपादि विकल्पोंका अभाव न हो जाय इसके लिये मानसप्रत्यक्ष मानना चाहिए।
तात्पर्य यह कि शान्तभद्र मानसप्रत्यक्षको युक्तिसिद्ध मानते थे। वे 'विकल्पोदय' रूप कार्यसे मानसप्रत्यक्षका अनुमान करते थे और इन्द्रियविज्ञानसे सन्तानभेद होनेके कारण 'विकल्पोदय' नहीं मानना चाहते थे। "धर्मोत्तरने न्यायबिन्दुमें उनके इस मतका खण्डन किया है, और मानसप्रत्यक्षको सिद्धान्तप्रसिद्ध बताया है तथा कहा है कि इसको सिद्ध करने की कई युक्ति नहीं है। 'तब लक्षण करनेका क्या प्रयोजन है ?' इस प्रश्नके उत्तरमें कहा है कि यदि वह ऐसा हो तो मानसप्रत्यक्ष समझना चाहिये ।
अकलङ्कदेवने न्यायविनिश्चय (१।१६१-६२) में शान्तभद्रके इस मानस प्रत्यक्ष सम्बन्धी मतका खंडन किया है । यथा
"अन्तरेणेदमक्षानुभूतं चेन्न विकल्पयेत् ।।
सन्तानान्तरवच्चेतः समनन्तरमेव किम् ॥" न्यायविनिश्चयविवरणकार वादिराजसूरिने इस श्लोककी उत्थानिकामें 'शान्तभद्रस्त्वाह' लिखकर शान्तभद्रका पूर्वोक्त मत देकर ही इस श्लोककी व्याख्या की है ।
(१) न्यायबि० धर्मोत्तरप्र० पृ० ५, ३१, ३२, ६१, १३८, २०२ ।
(२) "इह शान्तभद्रेण सौत्रान्तिकानां मतं दर्शयता पूर्व चक्षू रूपे चक्षुर्विज्ञानं ततस्तेनेन्द्रियविज्ञानेन सहजसहकारिणा तृतीयस्मिन् क्षणे मानसप्रत्यक्षं जन्यते” इति व्याख्यातम्"-धर्मोत्तर प्र.पृ०६१॥
(३) "इह पूर्वैः-'बाह्यालम्बनमेवंविधं मनोविज्ञानमस्तीति कुतोऽवसेयम्' इत्याशक्य 'तदभावे तबलोत्पन्नानां विकल्पानामभावात् रूपादौ विषये व्यवहाराभावप्रसङ्गः स्यात्' इत्युक्तम् । 'चक्षुरादिविज्ञानेनानुभूतत्वान्न विकल्पाभावः' इति चाशझ्याभिहितम्-'देवदत्तेनापि दृष्टे यज्ञदत्तस्यापि विकल्पप्रसङ्गः।' 'सन्तानभेदान्न भविष्यति' इति च पुनराशक्य अत्रापि सन्तानभेदादेव विकल्पो न प्राप्नोति यत इहापि इन्द्रियाश्रयभेदादेव सन्तानभेदो युगपत्प्रवृत्तेश्च तस्मात् रूपादिविकल्पाभावो मा भूदित्यविकल्पकं मनोविज्ञानमभ्युपेयम्.."-धर्मोत्तर प्र. पृ० ६२-६३ ।
(४) "एतञ्च सिद्धान्तप्रसिद्धं मानसप्रत्यक्षं न त्वस्य प्रसाधकं प्रमाणमस्ति । एवंजातीयकं तद्यदि स्यात् न कश्चिद् दोषः स्यादिति वक्तु लक्षणमाख्यातमिति ।"-न्यायबि० टी० पृ० ६३ ।
(५) "शान्तभद्रस्त्वाह-यद्यपि प्रत्यक्षतस्तस्य तस्मात् भेदो न लक्ष्यते कार्यतो लक्ष्यत एव । कार्य हि नीलादिविकल्परूपं स्मरणापरव्यपदेशं न कारणमन्तरेण, कादाचित्कत्वात् । न चाक्षज्ञानमेव तत्कारणम् सन्तानभेदात् प्रसिद्धसन्तानान्तरतज्ज्ञानवत् । ततोऽन्यदेव अक्षज्ञानात्तत्कारणम् । तदेव च मानसं प्रत्यक्षमिति । एतदेव दर्शयित्वा प्रत्याचिख्यासुराह-अन्तरेण-"-न्यायवि० वि० प्र० पृ० ५२६ ।
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