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प्रस्तावना
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सिद्धि वि० टी० (पृ० १२९) में भी 'अत्राह शान्तभद्रः' लिखकर इनके मतसे मानसप्रत्यक्षकी कल्पनाका प्रयोजन उस मानसविकल्पकी उत्पत्तिको बताया है। जो सन्तानभेदकै कारण इन्द्रियज्ञानसे उत्पन्न नहीं हो सकता । अकलङ्कदेव उस मतको अपने मूल श्लोकमें उन्हींके शब्दोंमें उल्लिखित करके उसका खंडन करते हैं
"प्रत्यक्षान्मानसाहते बहिर्नाक्षधियः स्मृतिः। सन्तानान्तरवच्चेत्तत्समनन्तरमस्य किम् ॥"
-सिद्धि वि० २५ इस तरह हम देखते हैं कि अकलङ्कदेवने न्यायविनिश्चय और सिद्धिविनिश्चय दोनोंमें शान्तभद्रकी स्पष्टतया आलोचना की है। धर्मोत्तर और अकलङ्क
धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दुके टीकाकारोंमें अर्थप्रधान व्याख्याकारोंमें धर्मोत्तरका प्रधान स्थान है। ये धर्माकरदत्त अपर नाम अर्चटके शिष्य थे । 'अर्चट और अकलङ्क' शीर्षकमें लिखा जा चुका है कि अर्चट ई० ७वीं सदीके अन्तिम भागके विद्वान हैं, अतः उनके शिष्य धर्मोत्तरका भी समय ७वींका अन्तिम भाग ही समझना चाहिए । अर्चट वृद्ध और धर्मोत्तर युवा होकर दोनों समकालीन हैं । इसका साधक एक प्रमाण यह भी है कि धर्मोत्तरकी टीकाके ऊपर मलवादीने टिप्पण लिखा है । मल्लवादीके सम्बन्धमें प्रो० दलसुखजीने लिखा है कि "डा० अल्टेकर ने एपिग्राफिका इन्डिका में गुजरातके राष्ट्रकूट राजा कर्क सुवर्णवर्षका एक ताम्रपट्ट सम्पादित किया है। उसमें मूलसंघके सेन आम्नायके मल्लवादी उनके शिष्य सुमति और उनके शिष्य अपराजितको दिये गये दानका उल्लेख है । यह लेख शकसंवत् ७४३ का है । डॉ० अल्टेकरका अनुमान है कि न्यायबिन्दुके टिप्पणकार इस लेखमें उल्लिखित मल्लवादी हो सकते हैं और उनका यह अनुमान धर्मोत्तरके समयके साथ भी संगत होता है । शकसंवत् ७४३ अर्थात् ई० ८२१ में अपराजित हुए, मल्लवादी अपराजितके गुरु सुमतिके भी गुरु थे।"
इससे स्पष्ट है कि मल्लवादी ई० ७२५ के आसपास हुए हैं तो धर्मोत्तरको ७०० ई० के आसपास होना चाहिए। इन्होंने न्यायबिन्दुटीका प्रामाण्यपरीक्षा अपोहप्रकरण परलोकसिद्धि क्षणभंगसिद्धि और प्रमाणविनिश्चयटीका आदि ग्रन्थ रचे हैं।
शान्तभद्रके प्रकरणमें लिखा जा चुका है कि धर्मोत्तर मानस प्रत्यक्षको सिद्धान्तप्रसिद्ध मानते थे युक्तिसिद्ध नहीं । अकलङ्क देवने न्यायविनिश्चयमें शान्तभद्रके मानसप्रत्यक्ष सम्बन्धी विचारोंका खण्डन करनेके बाद शान्तभद्रकी आलोचना करनेवाले धर्मोत्तरके इस मतका भी कि 'मानसप्रत्यक्ष सिद्धान्तप्रसिद्ध है, उसका लक्षण विप्रतिपत्तिके निराकरणके लिये किया गया है' खंडन किया है । यथा
"वेदनादिवदिष्ट चेत् कथन्नातिप्रसज्यते प्रोक्षितं भक्षयन्नेति दृष्टा विप्रतिपत्तयः॥
लक्षणं तु न कर्त्तव्यं प्रस्तावानुपयोगिषु।" -न्यायवि० १६१६२-६३ अर्थात् सुखादिकी तरह यदि वह मानस प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है तो अतिप्रसङ्ग हो जायगा । 'प्रोक्षित
(१) "अत्राह शान्तभद्रः-तत्कल्पनया बहिरथें मानसं स्मरणं लब्धम् । नहि तत् चक्षुरादिजं युक्तं भिन्नसन्तानत्वात् । ..."-सिद्धिवि० टी० पृ० १२९ ।
(२) धर्मोत्तरप्र० प्रस्तावना पृ० ५५। (३) वही । (४) एपि. इं० भाग २१ पृ. १३३ । (५) धर्मोत्तरप्र. प्रस्तावना पृ० ५३ । (६) न्यायवि.वि. प्र. पृ० ५३० ।
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