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________________ प्रस्तावना अकलङ्कदेवने प्रज्ञाकर गुप्तके उक्त सभी सिद्धान्तोंका खण्डन किया है । यथा (१) अकलङ्कदेव सिद्धिवि०में "न हि स्वापादौ चित्तचैतसिकानामभावं प्रतिपद्यमानान् प्रमाणमस्ति ।" इस वाक्यके द्वारा स्वापादिमें ज्ञानाभाव माननेवालोंका खण्डन करते हैं । (२) न्यायविनिश्चय (श्लो० ४७) में अकलङ्कदेवने प्रज्ञाकरके स्वप्नान्तिकशरीरका 'अन्तःशरीर' शब्दसे उल्लेख करके पूर्वपक्ष किया है । (३) जिस प्रकार प्रज्ञाकर गुप्तने पीतशंखादिज्ञानोंको संस्थानमात्र अंशमें प्रमाण तथा इतरांशमें अप्रमाण कहा है उसी तरह अकलङ्क भी लघीयस्त्रय तथा अष्टशतीमें द्विचन्द्रज्ञानको चन्द्रांशमें प्रमाण तथा द्वित्वांशमें अप्रमाण कहते हैं । अष्टशती में तो वे प्रज्ञाकर गुप्तकी संस्थानमात्रको अनुमान माननेकी बातपर आक्षेप करते हैं । यथा-"नापि लैङ्गिक लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धाप्रतिपत्तेः।" प्रज्ञाकरके वार्तिकाल० (पृ० ३२५) का "एकमेवेदं हर्षविषादाद्यनेकाकरविवर्त पश्यामः" वाक्य सिद्धि वि० के इस वाक्यसे तुलनीय है "हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्तज्ञानवृत्तः प्रकृतेरपरां चैतन्यवृत्तिम्.." ___ इस तरह इस तुलनासे स्पष्ट है कि अकलङ्कदेवने प्रज्ञाकर गुप्त के ग्रन्थों को देखा ही नहीं उनकी समालोचना भी की है। अर्चट और अकलङ्क अर्चटका दूसरा नाम धर्माकर दत्त था। इन्होंने हेतुबिन्दुटीका क्षणभङ्गसिद्धि और प्रमाणद्वयसिद्धि ये तीन ग्रन्थ रचे थे। टिबेटियन इतिहास लेखक तारानाथके उल्लेखानुसार धर्माकरदत्त धर्मोत्तरके गुरु थे। डॉ विद्याभूषणने इनका समय ई० ९०० अनुमानित किया है। राहुलजीने इनका समय वादन्याय परिशिष्ट में ई० ८२५ लिखा था किन्तु प्रमाणवार्तिकालङ्कारकी प्रस्तावना (पृ० ७) में उसमें सुधार कर ई० ७०० दिया है, तथा टिबेटियन परम्परा के अनुसार धर्मोत्तर इनका शिष्य है यह भी सूचित किया है। हेतुबिन्दुके सम्पादक पं० सुखलालजीने इनका समय ई० सातवींका अन्त तथा ८ वींका पूर्वभाग सूचित किया है। इनमें राहुलजी और पं० सुखलालजीका इन्हें ई० ७००से ७२५ तकका विद्वान् बताना इसलिये भी उपयुक्त है कि अकलङ्कदेव (ई० ७२०-७८०) ने सिद्धिविनिश्चयमें इनकी आलोचना की है। उदाहरणार्थ __ "सामान्यविषया व्याप्तिः तद्विशिष्टानुमितेरिति चेत्," यह पूर्वपक्ष सिद्धिविनिश्चय स्ववृत्ति में किया गया है। टीकाकार अनन्तवीर्य इसकी उत्थानिकामें लिखते हैं कि-"सामान्य इत्यादि अर्चटमतं दूषियतुं शङ्कते।' इससे स्पष्ट है कि अकलङ्कदेवने अर्चटकी भी समालोचना की थी। अन्य अवतरणोंके लिये 'अर्चट' नामके उल्लेख सिद्धिवि० टी० परि० ९ मे देना चाहिए। इस तरह अर्चट-धर्माकरदत्त ई० ७ वीं सदीने अन्तिम भागके विद्वान् होकर अकलङ्कके समकालीन हैं। इनकी आलोचना सिद्धिविनिश्चय टीका, न्यायविनिश्चिय विवरण तथा स्याद्वादरत्नाकर आदिमें भी प्रचुरता से है। (१) सिद्धि वि० टी० पृ० ९६ । विशेषके लिये देखो अकलङ्क ग्रन्थत्रय प्रस्ता. पू २८ । (३) देखो लघी० टि० पृ० १४० पं० २० से। (४) अष्टसह. पृ० २७७ । (५) सिद्धिवि० टी० पृ० ६७४। (६) हेतुबि० टीकालो० पृ० २३३ । (७) हेतुबि० टी० प्रस्ता० पृ० १२ । (८) हि. इं. लि. पृ० ३३१ । (९) हेतुबि० प्रस्ता० पृ० १२। (१०) सिद्धिवि०, टी० पृ० १७७ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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