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________________ ग्रन्थकार अकलङ्क: तुलना प्रतिषेधे प्रत्यक्षलक्षणानुपपत्तेः किं केन विदध्यात् प्रतिषेधयेद्वा यतः चातुीतिकमेव जगत् स्यात् । यदि नाम स्वसंवेदनापेक्षया बहिरन्तश्चोपप्लुतमिति ; सूक्तमेवैतत् , निराकृतपरदर्शनगमनात् । विभ्रमैकान्तमुपेत्य स्वसंवेदनेऽपि अपलापोपलब्धेः अन्यथा विप्रतिषेधात् चतुर्भूतव्यवस्थामपि लक्षणभेदात् कथयितुमर्हति, अन्यथा अनवस्थाप्रसङ्गात् ।" । -सिद्धिवि० स्ववृ० ४।१२। इसमें प्रथम तो यह बताया है कि प्रमाणमात्रका निषेध करनेपर प्रत्यक्ष ही प्रमाण है यह स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि अनुमान प्रमाणका निषेध करनेपर प्रत्यक्षका लक्षण सिद्ध नहीं हो सकता, तब किसका किससे विधान या प्रतिषेध किया जायगा जिससे चातभौतिक जगत माना जाय । यदि स्वसंवेदनक अपेक्षा बाह्य और आभ्यन्तर दोनों तत्त्वोंको उपप्लुत कहते हो तो यह भी कथन 'सूक्त' नहीं हुआ; क्योंकि जिस बौद्धदर्शन (स्वसंवेदन प्रत्यक्षवाद) का खण्डन किया था उसी दर्शनका आश्रय लेना पड़ा । फिर विभ्रमैकान्तका आश्रय लेकर स्वसंवेदनका भी अपलाप किया जा सकता है। यदि स्वसंवेदनमें विभ्रम नहीं है तो चतुर्भूतव्यवस्था भी लक्षणभेदपूर्वक कहनी चाहिए। अन्यथा चतुर्भूतव्यवस्था नहीं होगी आदि । जैसा कि पं० सुखलालजीने स्वयं उक्त लेखमें लिखा है कि-"जयराशि बृहस्पतिका अनुयायी होकर भी अपनेको बृहस्पतिसे भी ऊँची बद्धि भूमिकापर पहँचा हआ मानता है।" सचमुच जयराशिकी वही प्रकृति इस सन्दर्भमें साफ-साफ झलकती है। पूर्वोक्त सन्दर्भमें अकलङ्कदेव जयराशिको, जो कि बाह्य और अन्तर सर्वत्र तत्त्वको उपप्लुत तत्त्व ही कहता है, समझाते हैं कि स्वसंवेदनके माने बिना विधि-प्रतिषेध नहीं किया जा सकता । फिर जिस प्रकार अन्यके निषेधके लिये स्वसंवेदन मानना चाहते हो; उसी तरह चतुर्भू भी कहनी चाहिये और वह व्यवस्था प्रत्यक्षके बिना नहीं हो सकती और प्रत्यक्षकी व्यवस्था प्रमाणा अभावमें सम्भव नहीं है । तात्पर्य यह कि अनुमान नामका प्रमाण भी मानना होगा आदि । अतः अकलङ्कके उक्त सन्दर्भमें आए हुए 'बहिरन्तश्च उपप्लुतम्' पद यह स्पष्ट बता रहे हैं कि उनकी दृष्टि में तत्त्वोपप्लववादी है। सिद्धिविनिश्चय टीकाकार अनन्तवीर्यने इस अंशकी व्याख्या तत्त्वोपप्लव और जयराशिका नाम लेकर ही की है। अतः अकलङ्कके सामने जयराशिके रहनेपर पंडितजीने जो जयराशिके समयकी पूर्वावधि (ई० ७२५) बताई है वह उत्तरावधि होनी चाहिये । ___इसके समर्थनके लिये एक अन्य प्रमाण यह है-धर्मकीर्तिने सुखकी ज्ञानरूपता सिद्ध करनेके लिये निम्नलिखित इलोक प्रमाणवार्तिक (३।२५२) में लिखा है "तदतद्र पिणो भावाः तदतद्र.पहेतुजाः। तत्सुखादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ॥” अर्थात् तद्रूप पदार्थ तद्रूप हेतुसे उत्पन्न होते हैं और अतद्रप पदार्थ अतद्रूप हेतुसे । तो जब सुख विज्ञानके अभिन्न कारणोंसे उत्पन्न होता है तो उसे अज्ञानरूप क्यों कहा जाय ? जयराशि धर्मकीर्तिके इसी युक्तिवादको रूपको ज्ञानात्मक सिद्ध करनेके लिये लगाते हुए उक्त श्लोकके 'सुखादि' पदके स्थानमें 'रूपादि' पद रख देते हैं __ "अथ शानं ज्ञानेन उपादनभूतेन जन्यते ; रूपमपि तेनैव जन्यते । नहि तस्य रूपोपादाने आत्माऽन्यत्वम् । एवं च तदतद्र पिणो भावाः तदतद्र पहेतुजाः। तद्र पादि किमशानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ॥ (१) भारतीय विद्या वर्ष २ अंक । (२) "तत्त्वोपप्लवकरणात् जयराशिः सौगतमतमवलम्ब्य घूयात् तत्राह-स्वसंवेदन इत्यादि"सिद्धिवि० टी० पृ. २७८॥ (३) 'तद्रूपादि' पद बदला हुआ यह श्लोक विद्यानन्दकी अष्टसहस्री (पृ० ७८) में 'तदुक्तम्' के . साथ उद्धृत है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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