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________________ ३० प्रस्तावना अथ रूपोपादानजन्यत्वे..."-तत्त्वोप० पृ० ४५॥ ____ इस सन्दर्भ में तत्त्वोपप्लवमें जो यह परिवर्तित श्लोक जयराशिने प्रस्तुत किया है वह उद्धृत वाक्य नहीं है जैसा कि प्रकाशित संस्करणमें छापा गया है ; क्योंकि उसके आगे पीछे उद्धृतवाक्य सूचक 'उक्तं च' आदि कोई पद नहीं है। जयराशिके इस 'तपादि' वाली बातका उत्तर धर्मकीर्तिके शिष्य प्रज्ञाकरने अपने प्रमाणवार्तिकालङ्कार (पृ० ३१३) में जयसिंहकी बदली हुई का रिकाका उद्धरण देकर ही दिया है "अनेन एतदपि निरस्तम्तदतपिणो भावाः तदतद्रपहेतुजाः। तपादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ॥” -प्र. वार्तिकाल० पृ० ३१३ । इससे यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि जयराशि धर्मकीर्तिके उत्तरकालमें तथा प्रज्ञाकरके पहिले हुए हैं या इन दोनोंके समकालीन हैं । महापण्डित राहुल सांकृत्यायनने प्रज्ञाकरका समय ई० ७०० ही रखा है । जो ठीक है। हमने 'प्रज्ञाकर गुप्त और अकलङ्क' की तुलना करते हुए विस्तारसे बताया है कि अकलङ्क देवने प्रज्ञाकरके भाविकारणवाद और स्वप्नान्तिकशरीरवादका निरसन किया है। _ अतः तत्त्वोपप्लवकारकी आलोचना करनेवाले प्रज्ञाकरका भी खण्डन करनेवाले अकलङ्कदेवके सामने यदि तत्त्वोपप्लववाद रहता है तो उसमें कोई बाधा नहीं है। ___ ऐसी स्थितिमें हमें जयराशिके समयको थोड़ा और पूर्व में खींचना होगा यानी उनकी समयावधिधर्मकीर्ति और प्रज्ञाकरके बीचमें ई० ६५० से ७०० तक रखनी होगी । .. आचार्य अनन्तवीर्यने प्रस्तुत टीकामें जयसिंहराशि और तत्त्वोपप्लव ग्रन्थका खण्डन नामोल्लेख करके किया है। प्रज्ञाकरगुप्त और अकलङ्क आ० धर्मकीर्तिके टीकाकारों में प्रज्ञाकरगुप्त आगमापेक्षी टीकाकार हैं। ये केवल टीकाकर ही नहीं थे किन्तु कुछ अपने स्वतन्त्र विचार भी रखते थे। डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषणने इन्हें १०वीं सदीका विद्वान् लिखा है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायनने टिबेटियन गुरु परम्पराके अनुसार इन्हें ई० ७०० का विद्वान् बताया है। इनका नामोल्लेख विद्यानन्द (ई० ८००-८४०) अनन्तवीर्य (ई० ९५०-९९०) प्रभाचन्द्र (ई० ९८०-१०६५) वादिराज' (ई० १०२५) और वादिदेवसूरि° (ई० १११७-११६९) ने किया है । जयन्तभट्टने वातकालङ्कार (पृ० ३२५) से "एकमेवेदं हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्" इस वाक्यका उद्धरण देकर उसका खण्डन किया है । जयन्तभट्टका सयय ई० ८१० तक है। इत्सिंगने अपने यात्रा-विवरणमें जिस प्रज्ञागुप्तका नाम लिया है और लिखा है कि "प्रज्ञागुप्त (मतिपाल नहीं) ने सभी विपक्षी मतोंका खण्डन करके सच्चे धर्मका प्रतिपादन किया।" वह यही प्रज्ञाकर गुप्त हैं कोई दूसरा नहीं । इस तरह सन् ६९१-९२ में लिखे गये यात्रा विवरणमें प्रज्ञाकरगुप्तका नाम होनेसे ये (१) प्रमाणवार्तिकभाष्य प्रस्तावना पृ० (ढ)। (२) अकलङ्क ग्रन्थत्रय प्रस्ता० पृ० २६ । (३) देखो पृ० २७७, २७८ । (४) हि० इ० लि. पृ० ३३६ । (५) वादन्याय परिशिष्ट और प्रमाणवार्तिकभाष्य प्रस्तावना । (६) अष्टसह. पृ. २७८ । (७) सिद्धिवि. टी. परि०९। (6) प्रमेयक० पृ. ३८० । (९) न्यायवि०वि०प्र०, द्वि० भाग। (१०) स्या० रत्ना० पृ० ३१४ । (११) न्यायम० प्रमे० पृ०७० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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