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________________ ૨૮ प्रस्तावना इस श्लोकांशकी आलोचना अष्टशती' में हुई है । सिद्धिवि० (५।३ ) में " शब्दाः कथं कस्यचित् साधनम् इति ब्रुवन्” वह वाक्य प्रमाणविनिश्चयका उल्लेख कर रहा है; क्योंकि टीका ( पृ० ३२० ) में इस वाक्यको 'तदुक्तं विनिश्चये' करके उद्धृत किया है । (४) वादन्याय की द्वयोः । "असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ॥” इस आद्य कारिकाकी समालोचना न्यायविनिश्चय' सिद्धिविनिश्चय और अष्टशती में की गई है । (५) न्यायबिन्दु' के 'विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षणस्य मरणस्य' इस अंशकी आलोचना 'यदि पुनरायुर्निरोधमेव मरणं किं स्याद्यतः तद् विज्ञानादिनिरोधेन विशिष्यते ।' इस सिद्धिवि० 'में की गई है। (६) प्रमाणवार्तिककी आलोचना तो सिद्धिविनिश्चय और न्यायविनिश्चयमें दसों स्थानोंमें हैं । इसके लिये देखो अकलङ्कग्रन्थत्रय टिप्पण- पृ० १३१-१३२, १३६ - १३९, १४९, १४२, १४६, १५२, १५५-१५७, १५९-१७० में आये हुए प्रमाणवा० के अवतरण तथा सिद्धिवि० मूलके उद्धृत वाक्य । प्रमाणवा० स्ववृत्तिके भी अवतरण सिद्धिवि० मूलके उद्धृत वाक्य परिशिष्ट में देखना चाहिए । (७) सिद्धिविनिश्चय' में 'एतेन सम्बन्धपरीक्षा प्रत्युक्ता' लिखकर अकलङ्कदेवने धर्मकीर्तिके 'सम्बन्ध परीक्षा' प्रकरणका ही उल्लेख किया है । यह त० इलोक वार्तिक ( पृ० १४८ - ), प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ५०९-११ ), स्या० रत्नाकर (१०८१२- ) और प्रमाणवार्तिकभाष्यकी भूमिका ( पृ० (ङ) ) में पूरी उद्घृत है । इस तरह अकलङ्कदेवने धर्मकीर्तिकी समस्त ग्रन्थराशिका ही नहीं उसकी व्याख्याओंका भी आलोडन किया है और उनकी आलोचना की है । जयराशिका तत्त्वोपप्लव और अकलङ्क - भट्टजय शिकृत तत्त्वोपप्लवसिंह ग्रन्थ बड़ौदासे प्रकाशित हुआ है । उसके विद्वान् संपादक पं० सुखलालजीने जयराशिका समय अनन्तवीर्य और विद्यानन्दके उल्लेखोंको उत्तरावधि मानकर ईसाकी ८ वीं शताब्दी अनुमानित किया है। भारतीय विद्या में प्रकाशित 'तत्त्वोपप्लव सिंह - चार्वाकदर्शनका एक अपूर्व ग्रन्थ' लेखमें श्रीमान् पं० सुखलालजीने ई० ७२५ और ई० ८२५ के बीच जयराशिका समय मानते हुए ये वाक्य लिखे हैं- “पर साथमें इस जगह यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि ई० सन् की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में होनेवाले या जीवित ऐसे अकलङ्क हरिभद्र आदि किसी जैन विद्वान् का तत्त्वोलवमें कोई निर्देश नहीं है और न उन विद्वानों की कृतियों में ही तत्त्वोपप्लव का वैसा सूचन है ।" किन्तु हरिभद्रके ग्रन्थोंमें तत्त्वोपप्लवका स्पष्ट निर्देश न होनेपर भी हमें अकलङ्कके सिद्धिविनिश्चयका निम्नलिखित सन्दर्भ इस नतीजेपर पहुँचा देता है कि अकलङ्कदेव के सामने तत्त्वोपप्लववादी के विचार अवश्य थे । यथा "प्रमाणाभावेन प्रत्यक्षमेकं नापरं प्रमेयतत्त्वं वेति न तथा प्रतिपत्तुमर्हति । प्रमाणान्तर (१) अष्टसह ० पृ० ८१ । (३) सिद्धिवि० टी० पृ० ३३२,३३४ । (२) श्लो० ३७८ । (४) अष्टसह ० पृ० ८१ । (५) न्यायबि० ३।५९ । (६) सिद्धिवि० टी० पृ० १६५ । (७) सिद्धिवि० टी० परि० पृ० ७६५ । (८) सिद्धिवि० टी० पृ० ७४९ । (९) तत्वोपप्लव ० प्रस्तावना पृ० १० । (१०) भारतीय विद्या वर्ष २ अंक १ | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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