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ग्रन्थकार अकलङ्क: तुलना
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मनुष्यों से केवल एक या दो ही प्रकट हुआ करते हैं जिनकी उपमा चाँद या सूर्यसे होती है और उन्हें नाग या हाथीकी तरह समझा जाता है । पहिले समयमें नागार्जुन, देव, अश्वघोष, मध्यकालमें वसुबन्धु, असङ्ग संघभद्र और भवविवेक अन्तिम समयमें जिन, धर्मपाल, धर्मकीर्ति, शीलभद्र, सिंहचन्द्र, स्थिरमति, गुणमति, प्रज्ञागुप्त, गुणप्रभ और जिनप्रभ ऐसे मनुष्य थे।” वे फिर लिखते हैं कि-"धर्मकीर्तिने 'जिन' के पश्चात् हेतुविद्याको और सुधारा । प्रज्ञागुप्तने (मतिपाल नहीं) सभी विपक्षी मतोंका खण्डन करके सच्चे धर्मका प्रतिपादन किया।"
इन उल्लेखोंसे मालूम होता है कि सन् ६९१ तकमें धर्मकीर्तिकी प्रसिद्धि ग्रन्थकारके रूपमें हो रही थी। इत्सिंगके द्वारा धर्मपाल गुणमति स्थिरमति आदिके साथ ही साथ धर्मकीर्ति तथा धर्मकीर्तिके टीकाकार शिष्य प्रज्ञागुप्त का नाम लिये जानेसे यह मालूम होता है कि उसका उल्लेख किसी खास समयके लिये नहीं है किन्तु एक ८० वर्ष जैसे लम्बे समयवाले युगके लिए है। यदि राहुलजी की कल्पनानुसार धर्मकीर्तिकी मृत्यु हो गई होती तो इत्सिंग जिस तरह भर्तृहरि (प्रसिद्ध वैयाकरण वाक्यपदीयकार नहीं, अन्य भिक्षु) को धर्मपालका समकालीन लिखकर उनकी मृत्युके विषयमें भी लिखता है कि-'उसे मरे हुए अभी ४० वर्ष हो गए' उसी तरह अपने युगप्रवर्तक प्रसिद्ध ग्रन्थकार 'धर्मकीर्ति की मृत्युपर भी आँसू बहाए बिना न रहता।
इस विवेचनसे हमारा आज भी यही निश्चित विचार है कि-प्रमाणवार्तिक (स्ववृत्ति सहित) न्यायबिन्दु, प्रमाण विनिश्चय, सन्तानान्तरसिद्धि, वादन्याय और सम्बन्धपरीक्षा ( सवृत्ति) आदि प्रौढ विस्तृत और सवृत्ति प्रकरणों और ग्रन्थोंके रचयिता धर्मकीर्तिकी समयावधि ई० ६२५-५० से आगे लम्बानी होगी और यह अवधि ई० ६२० से ६९० तक रखनी समुचित होगी। इससे युवेनच्वाँगके द्वारा धर्मकीर्तिके नामका उल्लेख न होनेका तथा इत्सिंग द्वारा होनेवाले उल्लेखका वास्तविक अर्थ भी संगत हो जाता है तथा तिब्बतीय इतिहास लेखक तारानाथका धर्मकीर्तिको तिब्बतके राजा 'स्रोङ सन् गम् पो' का, जिसने सन् ६२९ से ६८५ तक राज्य किया था, समकालीन लिखना भी युक्तियुक्त सिद्ध हो जाता है।
अकलङ्कदेवने धर्मकीर्तिके ग्रन्थोंकी केवल मार्मिक आलोचना ही नहीं की है किन्तु परपक्षके खण्डनमें उनका शाब्दिक और आर्थिक अनुसरण भी किया है। यथा(१) धर्मकीर्तिकी सन्तानान्तरसिद्धिका पहिला श्लोक' यह है
"बुद्धिपूर्वी क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद्ग्रहात् ।
मन्यते बुद्धिसद्भावं सा न येषु न तेषु धीः॥" अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिक (पृ० २५) में इसे 'तदुक्तम्' के साथ उद्धृत किया है तथा सिद्धिविनिश्चय में तो यह श्लोक 'ज्ञायते बुद्धिरन्यत्र अभ्रान्तः पुरुषैः क्वचित्' यह पाठभेद करके मूलमें ही शामिल कर लिया है ।
(२) हेतुबिन्दु (पृ० ५३ ) का 'अर्थक्रियार्थी हि सर्वःप्रेक्षावान् प्रमाणमप्रमाणं वाऽन्वेषते' यह वाक्य लघीयस्त्रय स्ववृत्ति (पृ० ३) में मूल रूपसे पाया जाता है।
हेतुबिन्दु (पृ० ५२) की 'पक्षधर्मस्तदंशेन' यह आद्य कारिका सिद्धिवि०' (६।२) में आलोचित
(३) प्रमाणविनिश्चयके
"सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः।" (१) इत्सिंगकी भारत यात्रा पृ० २७७ ।
(२) स्व. आचार्य नरेन्द्रदेव भी धर्मकीर्तिका समय ई० ६७५-७०० मानते थे।-बौद्धधर्म दर्शन पृ० १७०।
(३) राहुलजीकी सूचनानुसार। (४) सिद्धिवि० टी० पृ० १६४। (५) सिद्धिवि. टी. पृ० ३२४, ३७२।
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