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________________ प्रस्तावना धर्मपाल और चन्द्रपालने बुद्धके उपदेशोंकी सुवासको फैलाया था । गुणमति और स्थिरमतिकी प्रतिष्ठा तत्कालीन व्यक्तियों में सर्वाधिक थी। प्रभामित्र स्पष्ट युक्तिवादके लिये प्रसिद्ध थे। जिनमित्र सुन्दर संभाषणके लिये ख्यात थे । ज्ञानचन्द्र आदर्श चरित्र और सूक्ष्मप्रज्ञ थे। शीलभद्र सम्पूर्ण योग्यतावाले थे पर अभी तक इनके गुण अज्ञात थे। ये सब योग्यता और शिक्षाके लिये प्रसिद्ध थे। जब वह दूसरी बार (ई० ६४२) नालन्दा पहुँचा तो शीलभद्र आचार्य पदपर थे । इनसे उसने योगशास्त्रका अध्ययन किया था। इस विवरणसे ज्ञात होता है कि ई० ६४२ में धर्मपाल निवृत्त हो चुके थे और शीलभद्र उपाध्याय पद पर थे। किसी यात्रा विवरणसे यह पता नहीं चलता कि धर्मपालकी मृत्यु कब हुई ? इतना पता तो लग जाता है कि ई० ६४२ में शीलभद्र वयोवृद्ध थे और ई० ६४५ के बाद उनकी मृत्यु हुई ।' धर्मकीर्तिका नाम न देनेके विषयमें डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण' आदिका यही विचार है कि धर्मकीर्ति उस समय प्रारम्भिक विद्यार्थी होंगे। ___. महापण्डित राहुल सांकृत्यायनका विचार है कि-'धर्मकीर्तिकी उस समय मृत्यु हो चुकी होगी। चूँकि युवेनच्वाँगको तर्कशास्त्रसे प्रम नहीं था और यतः वह समस्त विद्वानोंके नाम देनेको बाध्य भी नहीं था इसीलिए उसने प्रसिद्ध तार्किक धर्मकीर्तिका नाम नहीं दिया । 'अकलङ्क ग्रन्थत्रय' की प्रस्तावना (पृ० २५) में इस सम्बन्धमें निम्नलिखित वाक्य लिखे गये थे ओर आज भी उन वाक्योंमें हेर-फेरका कोई कारण नहीं दिखाई देता। __ "राहुलजीका यह तर्क उचित नहीं मालूम होता; क्योंकि धर्मकीर्ति जैसे युगप्रधान तार्किकका नाम युवेनच्वाँगको उसी तरह लेना चाहिए था जैसे कि उसने पूर्वकालीन नागार्जुन या वसुबन्धुका लिया है। तर्कशास्त्रसे प्रेम न होनेपर भी गुणमति स्थिरमति जैसे विज्ञानवादी तार्किकोंका नाम जब युवेनच्वाँग लेता है तब धर्मकीर्तिने तो बौद्धदर्शनके विस्तारमें उनसे कहीं अधिक और ठोस प्रयत्न किया है । इसलिये प्रमाणवार्तिक आदि युगान्तरकारी सात ग्रन्थों के रचयिता धर्मकीर्तिका नाम लिया जाना न्यायप्राप्त ही नहीं था किन्तु युवेनच्वाँगकी सहज गुणानुरागिताका द्योतक भी था। यह ठीक है कि वह सबके नाम लेनेको बाध्य नहीं था पर धर्मकीर्ति ऐसा साधारण विद्वान् नहीं था जिसकी उपेक्षा अनजानमें भी की जाती । फिर यदि धर्मकीर्तिका कार्यकाल गुणमति और स्थिरमति आदिसे पहिले ही समाप्त हुआ होता तो धर्मकीर्तिकी विशाल ग्रन्थराशिका इनके ग्रन्थोंपर कुछ तो असर मिलना चाहिए था, जो उनके ग्रन्थोंका सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने पर भी :दृष्टिगोचर नहीं होता। अतः यही उचित मालूम होता है कि धर्मकीर्ति उस समय युवा थे जब युवेनच्वाँग नालन्दा आये थे। दूसरा चीनी यात्री इत्सिंग था । जिसने ई० ६७१ से ६९५ तक भारतवर्षकी यात्रा की थी। यह ई० ६७५ से ६८५ तक दस वर्ष नालन्दा विश्वविद्यालयमें रहा । इसने अपना यात्रा वृत्तान्त ई० ६९१-९२ में लिखा था । वह विद्यालयके लब्धप्रतिष्ठ स्नातकोंकी चर्चा के सिलसिलेमें लिखता है कि-"प्रत्येक पीढ़ीमें ऐसे (१) थामस वेटर्स-ऑन युवेनच्चांग भाग २ पृ० १६५। (२) वही पृ० १६८-६९ । (३) ज० तककुसुका अनुमान है कि सन् ६३५ में धर्मपाल जीवित नहीं जान पड़ता ।-इरिसंगकी भारत यात्रा, व्यापक भूमिका पृ० ज्ञ २६ । (४) युवेनच्चांगने जिनप्रभको चीनसे पत्र लिखा कि-"एक राजदूतसे मैंने सुना कि आ० शीलभद्र अब जीवित नहीं है। यह समाचार सुनकर मैं असह्य शोकमें मग्न हो गया। आह !"-बौद्ध संस्कृति पृ० ३३७ । (५) हि० इ० ला० पृ. ३०६। (६) वादन्याय प्रस्तावना पृ० ६ । (७) इत्सिगकी भारत यात्रा पृ० २७७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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