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________________ ग्रन्थकार अकलङ्क: तुलना अकलङ्कदेव सिद्धिविनिश्चय में इसका उपहास करते हुए लिखते हैं "दशहस्तान्तरं व्योम्नो नोत्प्लवेरन् भवादृशः। योजनानां सहस्रं किन्नोत्प्लवेत पक्षिराडिति ॥"-सिद्धिवि० ८।१२ (३) कुमारिलने जैनसम्मत केवलज्ञानकी उत्पत्तिको आगमाश्रित मानकर अन्योन्याश्रय दोष दिया है "एवं यैः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकिल्पतम् ॥ नर्ते तदागमात् सिध्येत् न च तेनागमो विना ।"-मी० श्लो० पृ० ८७ । अकलङ्कदेव न्यायविनिश्चयमें कुमारिलके शब्दोंको उद्धृत करके उत्तर देते हैं "एवं यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम् । नर्ते तदागमात् सिध्येत् न च तेन विनागमः ॥ सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मतः। प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥"-न्यायवि० श्लो० ४१२-१३ । शाब्दिक तुलना भी देखिए "पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवत्।"--मी० श्लो० पृ० ६९५ । "प्रत्यक्षप्रतिसंवेद्यः कुण्डलादिषु सर्पवत् ।"-न्यायवि० श्लो० ११७ । "तदयं भावः स्वभावेषु कुण्डलादिषु सर्पवत् ।”-प्रमाण सं० पृ० ११२ । इस तरह अकलङ्क और धर्मकीर्तिके द्वारा आलोचित होने तथा दिग्नागकी आलोचना करनेके कारण कुमारिलका समय ई० ७ वीं सदीका पूर्वार्ध सिद्ध होता है । धर्मकीर्ति और अकलङ्क 'धर्मकीर्तिका जन्म दक्षिण त्रिमलयमें हुआ था। तिब्बतीय परम्पराके अनुसार इनके पिताका नाम कोरुनन्द था । इसके लिये एक प्रमाण सिद्धिवि० टी० में उपलब्ध हुआ है। यहाँ एक वाक्य उद्धृत है ___ "कुरुन्दारकोऽसि केन तदत्सरभंसात् (तदवसरभ्रंशात)" इस श्लोकांशमें 'कुरुन्दारकोऽसि' के स्थानमें 'कोरुनन्ददारकोऽसि' पाठ होना चाहिए । इसमें धर्मकीर्तिका 'कोरुनन्ददारक' कहकर उपहास किया है । इससे ज्ञात होता है कि धर्मकीर्तिके पिता 'कोरुनन्द' थे यह अनुश्रति ई० दसवीं सदीसे पुरानी है । धर्मकीर्ति नालन्दाके आचार्य धर्मपालके शिष्य ये । धर्मपाल ई० ६४२ तक जीवित थे। धर्मकीर्ति भी ई० ६४२ तक जीवित रहे होंगे। यह समय टिबेटियन इतिहास लेखक तारानाथके उस लेखसे मेल खाता है जिसमें धर्मकीर्तिको टिबेटियन राजा स्रोङ्त्सन् गम् पो का समकालीन बताया है। इसका राजकाल ई० ६२७ से ६९८ तक था ।' ___चीनी यात्री युवेनच्चांगने भारत यात्रा ई० ६२९ से ६४५ तक की थी। वह नालन्दा में पहिली बार ई० ६३७ में तथा दूसरी बार ई० ६४२ में पहुँचा था । पहिली बार जब वह नालन्दा पहुँचा तो उसे धर्मपाल बोधिसत्त्वक वसतिगृहके उत्तरवाले स्थानमें ठहराया गया जहाँ उसे सब सुविधाएँ दी गई। उसने उन चुने हुए विद्वानोंके नाम दिये हैं जिनके द्वारा उस समय नालन्दामें मार्गदर्शन चालू था । उनमें (१) सिद्धिवि० टी० पृ० ५४३ । (२) डॉ० स० विद्याभूषण-हि० इ० ला० पृ० ३०२ । (३) दर्शनदिग्दर्शन पृ० ७४१ । (४) पृ० ५४ पं० ६। (५) हि० इ० ला० पृ० ३०६ टि० १॥ (६) ऑन युवेनच्चांग भाग २ परि०, विन्सेंट स्मिथ पृ० ३३५ । (७) बील-दी लॉइफ ऑफ युवेनच्वांग पृ० १०९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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