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________________ २४ प्रस्तावना पर इन श्लोकोंकी शब्दावलीका ध्यान से पर्यवेक्षण करनेसे ज्ञात होता है कि-ग्रन्थकार इन श्लोकोंको सीधे तौरसे किसी पूर्वपक्षीय ग्रन्थसे उठाकर उद्धृत कर रहा है। इनकी शब्दावली 'अविभागोऽपि' श्लोककी शब्दरचनासे बिलकुल भिन्न है । यद्यपि अर्थकी दृष्टि से 'अविभागोऽपि' श्लोक की संगति 'मत्पक्षे आदि श्लोकों से कुछ बैठायी जा सकती है; पर यह विषय स्वयं धर्मकीर्ति द्वारा मूलतः नहीं कहा गया है । धर्मकीर्तिके पूर्वज वसुबन्धु दिग्नाग आदिने विज्ञानवादका पूरा समर्थन किया है । अब कुछ ऐसे स्थल उद्धृत किये जाते हैं जिनसे यह निर्धारित किया जा सकेगा कि धर्मकीर्ति - ही कुमारिल की आलोचना करते हैं (१) कुमारिलने शाबर भाष्यके 'धर्मे चोदनैव प्रमाणम्' वाक्यको ध्यानमें रखकर अपने द्वारा किये गये सर्वज्ञत्व-निकारण का एक ही तात्पर्य बताया है-धर्मज्ञत्व का निषेध । यथा-- "धर्मशत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥ धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक (११३१-३५) में ठीक इससे विपरीत सुगत की धर्मज्ञता ही सिद्ध करते हैं । (२) कुमारिलके "नित्यस्य नित्य एवार्थः कृतकस्याप्रमाणता।" (मी० श्लो० वेदनि० श्लो० १४) इस वाक्य का धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिकमें उल्लेख करके उसकी मखौल उड़ाते हैं "मिथ्यात्वं कृतकेष्वेव दृष्टमित्यकृतकं वचः"-प्रमाण वा० ३।२८९ । (३) कुमारिल मी० इलो० (१० १६८) में निर्विकल्पक प्रत्यक्षका वर्णन इस प्रकार करते हैं "अस्ति ह्यालोचनाशानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥" धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिक (२।१४१) में इसका उल्लेख करके खण्डन किया है "केचिदिन्द्रियजत्वादेर्वालधीवदकल्पनाम् । आहुर्बाला.......... ........ " कुमारिलने वेदको अपौरुषेय सिद्ध करनेके लिये 'वेदाध्ययनवाच्यत्वात्' हेतुका प्रयोग किया है। धर्मकीर्तिने कमारिलके इस हेतु का भी खण्डन प्रमाणवार्तिक (३।२४०) में 'यथायमन्यतो' श्लोकमें किया है । कर्णकगोमि इस श्लोककी उत्थानिकामें कुमारिलके 'वेदस्याध्ययनं सर्वम्' इत्यादि श्लोकको ही उद्धृत करते हैं । इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि धर्मकीर्तिने ही कुमारिलकी आलोचना की है। अकलङ्कदेवके ग्रन्थों में कुमारिलके मन्तव्योंके आलोचनके साथ ही कुछ शब्दसादृश्य भी पाया ........ जाता है । यथा (१) कुमारिल सर्वज्ञका निराकरण करते हुए लिखते हैं कि__ "प्रत्यक्षाद्यविसंवादि प्रमेयत्वादि यस्य तु । सद्भाववारणे शक्तं को नु तं कल्पयिष्यति ॥" -मी० श्लो० पृ० ८५ । अकलङ्कदेव इसका यथातथा उत्तर देते हैं"तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादिर्यत्र हेतुलक्षणं पुष्णाति तं कथं चेतनः प्रतिषेद्धमर्हति संशयितुं वा ॥"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० ५८ । (२) तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षितने कुमारिलके नामसे यह श्लोक सर्वज्ञताके पूर्वपक्षमें उद्धृत किया है "दशहस्तान्तरं व्योम्नो यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनशतं गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥"-तत्त्वसं० पृ० ८२६ । (१) यह श्लोक कुमारिलके नामसे तत्त्वसंग्रह (पृ० ८१७) में उद्धत है। (२) मी० श्लो. पृ० ९४९। (३) शेषके लिये देखो-अकलङ्कग्रन्थत्रय प्रस्ता० पृ. २०-२१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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