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ग्रन्थकार अकलङ्क : तुलना
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यह श्लोक तन्त्रवार्तिक ( पृ० २५१-५३) में दो जगह उद्धृत होकर आलोचित हुआ है । तन्त्रवार्तिक (पृ० २०९-१०) में कुमारिल ने वाक्यपदीय' के "तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते ।" इस अंशका खण्डन किया है । मीमांसा श्लोकवार्तिक' में वाक्यपदीय (२1१-२ ) में आये हुए दशविध वाक्यलक्षणोंका समालोचन किया गया है। भर्तृहरिके स्फोटवादकी भी आलोचना कुमारिलने मीमांसा श्लोकवार्तिक के स्फोटवाद प्रकरण में बड़ी प्रखरता से की है ।
० धर्मकीर्तिने भी भर्तृहरिके स्फोटवादका खण्डन अपने प्रमाणवार्तिक तथा उसकी स्वोपज्ञवृत्ति में किया है । वे स्फोटवादका खण्डन प्रमाणवार्तिक ( ३।२५१ - ) में करते हैं । भर्तृहरिकी"नादेनाहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह ।
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आवृत्तिपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवभासते ॥" - वाक्यप० २२८५ ।
इस कारिकामें वर्णित वाक्यार्थबोधप्रकारका खण्डन प्रमाणवार्तिक स्वोपज्ञवृत्ति ( ३।२५३ ) में इस प्रकार उल्लेख करके किया गया है
"समस्तवर्णसंस्कारवत्या अन्त्यया बुद्ध्या वाक्यावधारणमित्यपि मिथ्या । " अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिक ( पृ० ४८६) में भर्तृहरिके स्फोटवादकी आलोचना के सिलसिले में वाक्यपदीय (१७९ ) की -
"इन्द्रियस्यैव संस्कारः शब्दस्योभयस्य वा । "
इस कारिकामें वर्णित इन्द्रियसंस्कार शब्दसंस्कार और उभयसंस्कार इन तीनों पक्षोंका खण्डन किया है । तत्त्वार्थवार्तिक ( पृ० ५७) में वाक्यपदीय की
“शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्यैवोपवर्ण्यते ।”
यह कारिका उद्धृत की है।
आचार्य अनन्तवीर्यने भी शब्दाद्वैतके प्रकरण में वाक्यपदीयसे 'अनादिनिधनं ब्रह्म' कारिका तथा नैगमाभासकै प्रसङ्गमें 'तां प्रतिपदिकार्थ' कारिका उद्घृत की है तथा पृ० ६८५ में उनका नामनिर्देश भी किया है ।
कुमारिल और अकलङ्क --
मीमांसकधुरीण भट्ट कुमारिल ई० सातवीं सदी के प्रख्यात विद्वान् माने जाते हैं । इन्होंने तत्रवार्तिक में भर्तृहरिकी वाक्यपदीयसे श्लोक उद्धृत किये हैं और उनकी आलोचना की है । भर्तृहरिका समय ई० ४ थी ५ वीं सदी बताया जा चुका है । डॉ०के० बी० पाठक आदिको विश्वास था कि कुमारिल ने धर्मकीर्ति की आलोचना की है और पार्थसारथि मिश्र और सुचरित मिश्र की व्याख्याओं में उद्धृत धर्मकीर्ति के श्लोकोंके आधार से यह प्रायः प्रसिद्ध हो गया था कि कुमारिल धर्मकीर्ति के आलोचक हैं । मीमांसा श्लोकवार्तिक शून्यवाद (श्लो० १५-१७ ) के जिन श्लोकोंकी चर्चा डॉ० पाठक करते हैं और जिनकी व्याख्या में सुचरित मिश्र 'अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मा' श्लोक उद्धृत करते हैं, वे ये हैं
" मत्पक्षे यद्यपि स्वच्छो ज्ञानात्मा परमार्थतः । तथाप्यनादौ संसारे पूर्वज्ञानप्रसूतिभिः ॥ चित्राभिश्वित्रहेतुत्वाद् वासनाभिरुपप्लवात् । स्वानुरूपेण नीलादिग्राहाग्राह्यक दूषितम् ॥ प्रविभक्तमिवोत्पन्नं नान्यमर्थमपेक्षते ।" - मी० श्लो० ।
वाक्यप० १।७।
वाक्यप० २।२३५।
म०म० कुप्पुस्वामी - ब्रह्मसि० प्रस्ता० पृ० ५८ ।
अकलङ्कग्रन्थत्रय प्रस्ता० पृ० १८ ।
(२) वाक्याधिकरण श्लो० ५१-१
(४) देखो परिशिष्ट ७ ।
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(६) पृ० २२ ।
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