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सम्पादकीयम्
लुप्त ग्रन्थोंकी उद्धार गाथा
सन् १९३३ में जब श्रद्धेय प्रज्ञानयन पं० सुखलालजी हिन्दू विश्वविद्यालय में जैनदर्शन के अध्यापक होकर आये और उन्होंने हमें ग्रन्थ सम्पादन-संशोधन में लगाया, तभीसे यह संकल्प मनमें हुआ कि जैन प्रमाणव्यवस्था के प्रस्थापक युगप्रधान आचार्य कलङ्कदेवके लुप्तप्राय ग्रन्थरत्नोंका उद्धार अवश्य करना है। इसी समय वे 'जैनसाहित्य और इतिहास' के प्रवक्ता पं० नाथूरामजी प्रेमीका पत्र लाये कि कलङ्कके 'लघीयस्त्रय' का प्रभाचन्द्रकृत 'न्यायकुमुदचन्द्र' वृत्ति के साथ सन्मतितर्ककी तरह सर्वाङ्गीण सम्पादन हो और उसके प्रकाशनकी शक्यता माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से है । इतना ही नहीं उन्होंने पंडितजी के साथ न्यायकुमुदचन्द्रकी ईडर भंडार से प्राप्त एक अति प्राचीन प्रति भी भेज दी । तदनुसार हमने और स्याद्वादविद्यालय के धर्माध्यापक श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने लघीयस्त्रय स्ववृत्तिका उद्धारका प्रारम्भ स्ववृत्तिके उन ग्यारह त्रुटित पत्रोंकी सहायता से किया जो न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रतिमें ही संलग्न थे । जब न्यायकुमुदचन्द्र के प्रथम भागका अधिकांश छप गया तत्र जयपुरके भंडार से स्ववृत्तिकी एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई, और इस तरह लघोयस्त्रय स्ववृत्ति उद्धार कार्यको पूर्णता और प्रामाणिकता मिली ।
न्यायकुमुदचन्द्रके संपादनकाल में ही जब हमने सन् १६३६ में, पं० सुखलालजीको प्राप्त सिद्धिविनिश्चय टीकाकी एक मात्र प्रतिके श्राधारसे प्रतिलिपि की तब पता चला कि इसमें कलङ्ककृत स्ववृत्तिका भी व्याख्यान अनन्तवीर्य श्राचार्यने किया है और उसके संकलनकी शक्यता है । सामग्रीका अभाव और प्रतिके अत्यन्त शुद्ध होने के कारण उस समय यह कल्पना भी नहीं थी कि उसका सम्पादन इस रूपमें हो सकेगा । सन् १६३६ में हमने इस टीकाका आलोडन कर सिद्धिविनिश्चय के मूल श्लोकोंके पुनर्ग्रथन तथा स्ववृत्तिके संकलनका प्रारम्भिक प्रथम प्रयास किया और उसके विशृंखलित अंशोंका अपने सम्पादित ग्रन्थों के टिप्पणों में उपयोग किया । इसी समय 'प्रमाणसंग्रह ' ग्रन्थ पं सुखलालजीको पाटनके भंडारसे उपलब्ध हुआ और सिंघीजैन ग्रन्थमाला में लघीयस्त्रय स्ववृत्ति के साथ उसके प्रकाशनके विचारने न्यायविनिश्चय मूलके प्रकाशनकी ओर भी ध्यान खींचा, और निश्चय किया गया कि कलङ्क के इन तीनों ग्रन्थोंको 'कलङ्क ग्रन्थत्रय' नाम से मैं सम्पादित करूँ । तदनुसार हमने वादिराजके न्यायविनिश्चय विवरणसे न्यायविनिश्चयमूलका उद्धार कर उसको ‘अकलङ्कग्रन्थत्रय' में शामिल कर सम्पादन किया । इतः पूर्व न्यायविनिश्चय मूलके उद्धारका प्रयत्न श्री पं० जिनदासजी शास्त्री सोलापुर ने किया था और इसी संकलनका मिलान तथा संशोधन श्री पं० जुगल किशोरजी मुख्तारके द्वारा हो चुका था, इसी तरह इसके उद्धारका द्वितीय प्रयत्न श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने भी अपने ढंग से किया था और हमें इन विद्वानोंके द्वारा उद्धृत न्यायविनिश्चयसे अपने द्वारा उद्धृत न्यायविनिश्चयका मिलान करने पर अनेक पाठभेद प्राप्त हुए थे । न्यायविनिश्चयके उद्धारके समय यह भी पता चला कि न्यायविनिश्चयकी भी एक स्ववृत्ति थी, जिसका अवतरण सिद्धिविनिश्चय टीका में दिया गया है, परन्तु न्यायविनिश्चय विवरण में उसका यथावत् व्याख्यान न होनेके कारण इसके उद्धारका कोई भी साधन हमारे पास नहीं रहा और आज भी यह वृत्ति लुप्त ही है ।
जब सन् १६४४ में भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना हुई तो उसके कार्यक्रममें श्रा० कलङ्क के ग्रन्थों के प्रकाशनको प्राथमिकता दी गई। तदनुसार हमने न्यायविनिश्चयका आ० वादिराजकृत न्यायविनिश्चयविवरणके साथ सम्पादन किया । इस समय तक प्रा० धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक वादन्याय और हेतुबिन्दु, प्रज्ञाकर गुप्तका प्रमाणवार्तिकालङ्कार, अर्चटकी हेतु बिन्दुटीका, जयसिंह भट्टका तत्त्वोपप्लवसिंह, कर्णकगोमिकी प्रमाणवार्तिक स्ववृत्तिटीका आदि मूल्य दार्शनिक साहित्य त्रिपिटकाचार्य महापण्डित राहुल सांकृत्यायन
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