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________________ [ १२ ] गई, ठीक-ठीक पदार्थ ज्ञानके लिए प्रमाणके अतिरिक्त नयकी आवश्यकता पर जोर दिया गया तथा स्याद्वाद और अनेकान्तात्मक बुद्धि व वचनशैलीका प्रतिपादन किया गया और यह दावा भी किया गया किः "पक्षपातो न मे धीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥” ... परिग्रहः॥" हिरिभद्र इतना ही नहीं, किन्तु यह भी स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया गया कि जितनी भी मिथ्यादृष्टियाँ हैं उनमें भी सत्यका अंश विद्यमान है। इस प्रकार, सामंजस्य जैन सिद्धांतकी सबसे बड़ी विशेषता है। नाना देश और कालकी विषम परिस्थितियोंमें भी जो यह धर्म जीवित व फलता-फूलता रहा है उसका एक विशेष कारण उसकी यह सामंजस्य वृत्ति भी रही है। अत एव जैन नैयायिकों पर इस बातका विशेष उत्तरदायित्व था कि वे अपने ग्रन्थोंमें वैदिक व बौद्ध परम्पराकी खंडन-मंडन शैलीका परित्याग कर अपनी समन्वय शैली द्वारा उक्त सभी दृष्टियोंमें सामंजस्य स्थापित करके दिखलाते । यद्यपि इन ग्रन्थोंमें स्याद्वाद, अनेकान्त, नय-निक्षेप, आदि समन्वयकारी नियमोंका ही प्रतिपादन किया गया है तथापि परमतोंकी समीक्षा करते समय जैन न्यायका यह पक्ष खासकर क्रियात्मक रूप धारण करता हुआ दिखाई नहीं देता जिससे कि उसका एकान्तदूषित वादोंसे पृथक् वैशिष्टय प्रमाणित होता। हमारे मतसे भविष्यमें जैनदर्शन व अनेकान्त न्यायके प्रतिपादनमें यह सामंजस्य वृत्ति ही विशेष रूपसे सन्मुख लाई जानी चाहिए । उसीकी आजके द्वेषदग्ध संसारको आवश्यकता है। उसीकी इस देश में मांग है और वही आज विश्वको जैन धर्मकी सबसे बड़ी देन हो सकती है। अकलंकके उपर्युक्त छह ग्रंथोंमें अन्तिम ग्रंथ 'सिद्धिविनिश्चय' का यह प्रकाशन हो रहा है । इसकी टीकाकी एक मात्र प्राचीन हस्तलिखित प्रति उपलब्ध हो सकी थी। उसीके आधारसे पंडित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने बड़े परिश्रमसे इस अनुपम ग्रंथरत्नकी मूल कारिकाओं और ग्रंथकारकी स्ववृत्तिका उद्धार किया है और अनन्तवीर्यकी टीकाके साथ उनका सम्पादन किया है। पंडितजीकी न्यायशास्त्र सम्बन्धी विद्वत्ता एवं साहित्य सेवाकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। विशेषतः अकलंकके समस्त साहित्यके सुन्दर रूपसे सम्पादन प्रकाशन द्वारा उन्होंने जैन साहित्यका बड़ा उपकार किया है। ग्रन्थकार और ग्रन्थ विषय सम्बन्धी जो विशाल प्रस्तावना १६४ पृष्ठोंमें इस ग्रन्थके साथ प्रस्तुत है उसके महत्त्वके सम्बन्धमें इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उसोसे युक्त सिद्धिविनिश्चयके प्रस्तुत संस्करण के आधारसे उनकी योग्यताको स्वीकार कर काशी-विश्वविद्यालयने उन्हें पीएच० डी० की उपाधिसे विभूषित करनेका निर्णय कर लिया है। इस सफल लेखन व सम्पादन कार्यके लिए डा० महेन्द्रकुमारजीको हमारा हार्दिक अभिनन्दन है। हम आशा करते हैं कि अपनी साहित्यसेवाके इस पुरस्कारसे प्रोत्साहित होकर पंडितजी और भी अधिक अपनी कृतियों द्वारा उस भंडारकी संवृद्धि करेंगे । पाठक देखेंगे कि ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रकाशनोंके द्वारा मूर्ति देवी ग्रन्थमाला कितनी गौरवान्वित हुई है और उसके संचालक अपने ध्येयमें कितने सफल हो रहे हैं । प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् महामहोपाध्याय डॉ० गोपीनाथजी कविराज तथा उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री मान्यवर डॉ. सम्पूर्णानन्दजीने इस ग्रन्थके प्राक्कथन लिखकर हमें बहुत अनुगृहीत किया है। भारतीय तत्त्वज्ञानका योग्य मूल्यांकन कैसा होना चाहिए इसका सच्चा मार्ग उन्होंने बतलाया है; और हमें आशा है कि उनके विचार सभी विद्वानोंको मार्ग दर्शक होंगे। मुजफ्फरपुर कोल्हापुर होरालाल जैन आ० ने० उपाध्ये ग्रंथमाला सम्पादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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