________________
प्राथमिक
कलंकके नामसे जैन समाजका प्रत्येक व्यक्ति सुपरिचित है । किन्तु इस परिचयका आधार है प्रायः अकलंकके जीवनका वह कथानक जिसके अनुसार उन्होंने बौद्ध शास्त्रोंके गूढ़ अध्ययन के लिए किसी बौद्ध महाविद्यालय में, वहाँ के नियमोंके विरुद्ध, वेष बदलकर प्रवेश किया, तथा सच्ची बात खुल जाने पर वहाँ से भाग कर बड़े क्लेशसे अपने प्राणोंकी रक्षा की । तलश्चात् उन्होंने राज सभा में बौद्धोंसे शास्त्रार्थ कर उन्हें परास्त किया और देश भर में जैनधर्मका डंका बजाया ।
I
कथानक अधिकांश काल्पनिक हुआ करते हैं, और उनमें अनेक बातें बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन की जाती है । किन्तु उनमें हमें बहुधा, विवेकसे विचार करने पर, तथ्यांश के दर्शन भी हो जाते हैं । कलंकके विषयमें - जो बातें उनकी रचनाओं के अध्ययन व अन्य ऐतिहासिक खोज-शोधसे ज्ञात हो सकी हैं उनसे उक्त कथानककी यह बात पूर्णतः प्रमाणित हो जाती है कि कलंकने जैन धर्मके अतिरिक्त वैदिक व बौद्ध शास्त्रोंका गहन अध्ययन किया था, और अपने ग्रन्थोंमें उनकी तीव्र आलोचना करके जैन धर्म के महत्त्वको बहुत
बढ़ाया था ।
अकलंकका सबसे अधिक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है ' तत्वार्थ राजवार्त्तिक' । यह उमास्वातिके तत्त्वार्थ सूत्रकी विशद और सुविस्तृत टीका है, जिसमें उनसे पूर्वकी पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि नामक तत्वार्थवृत्तिका बहुभाग वार्त्तिक रूपसे ग्रहण कर विषयको विस्तारसे समझानेका प्रयत्न किया गया है। उस कृतिका पंडितसमाजमें बहुत कालसे प्रचार है, और इसे पढ़कर ही वे जैन सिद्धान्तशास्त्रीका पद प्राप्त करते चले आ रहे हैं। उनकी दूसरी प्रसिद्ध रचना है 'अष्टशती' | यह समंतभद्र कृत ' आप्तमीमांसा' की टीका है जिसे आत्मसात् करके विद्यानन्द स्वामीने अपनी 'अष्टसहस्री' नामकी टीका लिखी है । जैन न्यायके ज्ञानके लिए यह रचना भी दीर्घकालसे सुविख्यात है । इनके अतिरिक्त कलंककी चार रचनाएँ और अभी अभी प्रकाश में आई हैं । ये हैं 'लघीयस्त्रय', 'न्यायविनिश्चय', 'प्रमाणसंग्रह' और 'सिद्धिविनिश्चयं' । ये चारों ही ग्रन्थ न्याय-विषयक हैं, जिनमें जैन न्यायके सिद्धान्तोंको सुप्रतिष्ठित और पल्लवित करते हुए उनके द्वारा जैन आगमिक परम्पराका पोषण किया गया है, और यथावसर वैदिक व बौद्ध सिद्धान्तोंकी आलोचना की गई है । इन ग्रन्थोंका अभी उतना प्रचार नहीं हो पाया जितना प्रथम दो रचनाओंका हुआ है । ये कृतियाँ, हैं भी अपेक्षाकृत अधिक दुर्बोध और पाण्डित्यपूर्ण । इसी कारण इन ग्रन्थोंकी प्राचीन प्रतियाँ भी दुर्लभ हो गई थीं । यह तो इस कालकी गवेषणावृत्ति तथा तत्संबंधी विद्वानोंके विशेष प्रयासोंका सुपरिणाम हैं जो ये ग्रन्थ प्रकाश में लाये जा सके हैं ।
जब हम न्यायविषयक ग्रन्थोंका अवलोकन करते हैं तब हमें अपने इन अतिप्राचीन विद्वानोंकी प्रतिभा, ज्ञानोपासना तथा साहित्यिक अध्यवसायपर आश्चर्य और गर्व हुए बिना नहीं रहता । किन्तु एक बात बारम्बार हृदयमें उठती है कि वैदिक परम्पराके नैयायिकोंने बौद्ध व जैन मतमतान्तरोंका खंडन किया व बौद्ध तथा जैन नैयायिकोंने अपने-अपने दोनों विरोधी धर्मोंका । न्यायकी जो शैलियाँ इन ग्रंथों में अपनायी गई हैं। उनका प्रयोजन मुख्यतः अपनी-अपनी श्रागमिक परम्पराओं का पोषण करना ही रहा है, जब कि न्यायका उद्देश्य होना चाहिए यथार्थताका निर्णय । जैनधर्मने न्यायशास्त्र ही नहीं किन्तु समस्त ज्ञानात्मक चिंतन के लिए कुछ ऐसे सिद्धान्त स्थापित किये हैं जिनका प्रयोजन वस्तुके स्वरूप पर विशाल दृष्टिसे विचार करना तथा संकुचित दृष्टिका निषेध करना है । इसी ध्येयसे सत्ताकी परिभाषा उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक रूपसे की
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org