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________________ [ १४ ] श्रादिके महान् श्रमसे प्रकाश में आया जिसका खंडन न्यायनिनिश्चय विवरणमें प्रचुर मात्रा में है । सिद्धिविनिश्चयटीकाका बहुभाग भी इन्हीं ग्रन्थोंके खंडनसे भरा हुआ है अतः कुछ उत्साह उस अशुद्धिपुंज सिद्धिविनिश्चयटीकाके संपादनका भी हुआ और ज्ञानपीठसे मुक्त होते ही हम इस कार्य में पूरी तरह जुट गये । लगभग ५ वर्षकी सतत साधना के बाद सिद्धिविनिश्चय टीका तथा उससे उद्धृत सिद्धिविनिश्चय मूल एवं उसकी स्ववृत्ति इस अवस्था में गये कि उनके सम्पादन और प्रकाशनके विचारको प्रोत्तेजन मिला । प्रयत्न करने पर भी अभी तक न तो सिद्धिविनिश्चय मूल और उसकी स्ववृत्तिकी प्रति ही मिली और न सिद्धिविनिश्चय टीकाकी दूसरो प्रति ही । अतः उस एकमात्र उपलब्ध प्रतिके आधारसे सम्पादन कार्य करना पड़ा है । सन् १६५६ में, भारती महाविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत और पाली विभाग के अध्यक्ष सम्माननीय डॉ॰ सूर्यकान्त शास्त्री एम० ए०, डी० लिट् के निर्देशन में जब इस ग्रन्थको 'ए क्रिटिकल एडीशन ऑफ सिद्धिविनिश्चय टीका' शीर्षक से पी एच० डी० उपाधिके लिए महानिबन्ध के रूपमें प्रस्तुत करनेका निश्चय हुआ तो इस कार्यको पूरी पूरी प्रगति मिली और उनके सुरुचि और विद्वत्तापूर्ण निर्देशनका यह फल है कि यह ग्रन्थ हिन्दू विश्वविद्यालयके द्वारा पी एच० डी० उपाधिके महानिबन्धके रूपमें स्वीकृत होकर इस रूप में प्रकाशित हो रहा है । • इस संस्करण की सामग्री और प्रस्तावना तथा टिप्पण आदिके वैशिष्ट्यका परिचय प्रस्तावना के प्रारम्भ में दे दिया है | प्रस्तावनामें कलङ्क और अनन्तवीर्य के समयनिर्णय के प्रसङ्ग में प्रा० भर्तृहरि धर्मकीर्ति कुमारिल जराशि प्रज्ञाकर गुप्त अर्चंट शान्तभद्र धर्मोत्तर और कर्णकगोमि आदि अनेक आचार्योंके समयपर साधार प्रकाश डाला गया है । दो विद्धकर्ण और अनन्तकीर्ति आचार्यके समय श्रादिपर तो सर्वप्रथम विचार इसी में प्रस्तुत हुआ है I आभार अन्तमें हम उन सभी सहायक महानुभावोंका हार्दिक आभार मानते हैं जिनके अमूल्य सहयोग से यह महान् साहित्ययज्ञ इस रूपमें पूर्ण हो सका है भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक संस्कृतिप्रिय दानवीर सेठ शान्तिप्रसादजी तथा उनकी समशीला धर्मपत्नी सौ० रमाजीने प्राचीन साहित्य के उद्धार और प्रकाशन तथा लोकोदयकारी साहित्य के प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना की है। इन्होंने इस ग्रन्थके प्रकाशन तथा इसे महानिबन्ध के रूपमें प्रस्तुत करने में विशेष ध्यान दिया है । श्रद्धेय डॉ० प्रज्ञानयन पं० सुखलालजीने प्रस्तुत ग्रन्थकी प्रति सुलभ कर मुझे इसके संपादनका अवसर दिया है। इनके गत २५ वर्षके साहचर्य विचारपद्धति और प्रेरणाका इस ग्रन्थकी अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग समृद्धिमें बहुमूल्य हाथ है । सम्माननीय डॉ० सूर्यकान्तजी शास्त्रीके अमूल्य निर्देशन में यह ग्रन्थ 'महानिन्त्रन्धके रूपमें स्वीकृत हुआ है । सुप्रसिद्ध दार्शनिक सन्त महामहोपाध्याय पं गोपीनाथ कविराजजीने तथा उत्तरप्रदेश के मुख्यमन्त्री माननीय डॉ० सम्पूर्णानन्दजीने इसके 'प्राक्कथन' लिखकर हमें प्रोत्साहित किया है । मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके सम्पादक डॉ० हीरालालजी जैन, संचालक प्राकृत विद्यापीठ वैशालीने मूलग्रन्थ और प्रस्तावनाकी पूर्णताके लिए अनेक सूचनाएँ दी हैं। हमारे अनन्य मित्र प्रो० दलसुखभाई मालवणिया के दैनन्दिन साहचर्य, चरचा, प्राप्त सामग्री के विश्लेषण और कार्यपद्धतिकी रूपरेखा के निर्णय श्रादिसे सम्पादन के सभी प्रमुख कार्यों में पूरा-पूरा याचित सहयोग प्राप्त हुआ है । इनके सभी अन्तरंग बहिरंग साधनोंसे मैं सदा आश्वस्त रहा हूँ । मित्रवर डॉ० गोरखप्रसादजी श्रीवास्तवने अपने अमूल्य क्षणोंको, अंग्रेजी प्रस्तावना श्रादिको अपनी सूक्ष्मदृष्टि और पैनी कलम से माँजने में लगाया है । श्री डॉ० बी० बी० रायनाडेने अंग्रेजी प्रस्तावना तथा अन्य कार्यों में पूरा-पूरा हाथ बटाया है। उन सभी विद्वानोंका भी स्मरण कर मैं यहाँ कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिनके ग्रन्थों और निबन्धोंसे प्रस्तावना श्रादिमें सहायता ली गई है। इनका निर्देश यथास्थान किया गया है। पार्श्वनाथ जैनाश्रम, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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