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________________ १९ ग्रन्थकार अकलङ्क तुलना णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदयभावत्थो । णिक्खेवो वि उवाओ जुत्तीए अस्थपडिगहणं' ॥८३॥" इसमें दूसरी गाथाका संस्कृत रूपान्तर अकलङ्कके द्वारा आगमानुसार प्रवचन प्रवेशमें किया गया है । लघीयस्त्रयके परिचयमें आगे बताया जायगा कि अकलङ्कदेवने पहिले 'प्रमाणनयप्रवेश' बनाया तदनन्तर स्वतन्त्र प्रवचनप्रवेश । केवल 'प्रवचन प्रवेश की प्रतियाँ भी मिलती हैं। पीछे स्वयं अकलङ्कने या अनन्तवीर्यने दोनों ग्रन्थोंको मिलाकर प्रवेशके अनुसार लघीयस्त्रय नाम दिया है। यह श्लोक प्रवचनप्रवेशकी मंगल-प्रतिज्ञाके बाद ही दिया गया है जिसमें 'यथागम' प्रवचन प्रवेशार्थ ये लक्षण किये जा रहे हैं । यह भी सही है कि अकलङ्कदेव आगमिक-दार्शनिक होनेके बाद ही तार्किक-दार्शनिक बने हैं; क्योंकि तत्त्वार्थवार्तिकमें उनके आगमिक-दार्शनिकताके दर्शन होते हैं तदनन्तर ही तार्किक-दार्शनिकताका स्वरूप आता है। इसी प्रवचनप्रवेश (पृ० २३) में आ०सिद्धसेनके सन्मतिसूत्र की "तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी । वटिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासिं ॥"-सन्मति० १।३ । इस गाथाका संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार किया गया है"ततः तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तारमूलव्याकारिणौ द्रव्यपर्यायार्थिको निश्चेतव्यो।" ___ -लघी० स्ववृ० श्लो० ६७ । इससे इतनी बात स्पष्ट हो जाती है कि अकलङ्कदेवने अपने आगमिक-दार्शनिक कालमें प्राचीन आगमवाक्योंका संस्कृतीकरण किया है, अतः 'ज्ञानं प्रमाण' श्लोक उनकी मौलिक कृति नहीं है । धवला टीकामें तो वह तिलोयपण्णत्ति और लघीयस्त्रय दोनोंसे ही उद्धृत हो सकता है पर अधिक संभावना यही है कि वह तिलोयपण्णत्तिसे संस्कृत रूपान्तरित होकर उद्धृत हुआ है; क्योंकि धवलामें तिलोयप० की दोनों गाथाओंका रूपान्तर है और 'शानं प्रमाणमित्याहुः' पाठ है जो तिलोयप० के 'णाणं होदि पमाणं' का रूपान्तर है । श्रीदत्त और अकलङ्क __आ० देवनन्दिने जैनेन्द्र व्याकरण (१।४।३४) में श्रीदत्त नामके आचार्यका उल्लेख किया है । अकलङ्कदेवने भी तत्त्वार्थवार्तिक (पृ० ५७) में शब्द प्रादुर्भाव अर्थमें इति शब्दके प्रयोगकी चरचाके प्रसङ्गसे 'इति श्रीदत्तम्' उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि ये कोई शब्दनिष्णात आचार्य थे । ये पूज्यपादसे पूर्ववर्ती थे । आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें इन्हें ६३ वादियोंका विजेता कहा है तथा इनके जल्प निर्णय ग्रन्थका उल्लेख किया है। आ० जिनसेनने भी इनका 'प्रवादीभप्रभेदिन' के रूपमें स्मरण किया है। अकलङ्कके सिद्धिविनिश्चयके जल्पसिद्धि प्रकरण तथा जय-पराजयव्यवस्थापर पात्रस्वामीकी तरह इनका प्रभाव हो सकता है। पूज्यपाद और अकलङ्क पूज्यपाद देवनन्दि आचार्यने जैनेन्द्रव्याकरण और सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थ बनाये हैं । इनका समय (१) इन दोनों गाथाओंका संस्कृत रूपान्तर धवला टीका (सत्प्र० पु. १ पृ० १६) में उद्धत है। कुछ विद्वानोंका विचार है (जैन सि० भा० भाग ११ किरण 1) कि तिलोयपण्णत्तिमें ही अकलङ्कके संस्कृतश्लोकका प्राकृतीकरण किया गया है, पर ऐसा प्रमाणित नहीं होता । (२) कन्नडप्रा० ता० सूची। (३) "द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् । त्रिषष्टेवादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥४५॥"- त० श्लो० पृ० २८० (४) आदिपु० ॥४५॥ (५) जैनसा० इ० पृ. ४१-। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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