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प्रस्तावना
हैं। फिलहाल इनके समयका सटीक निर्णायक अन्तरङ्ग प्रमाण सामने नहीं आया । अकलङ्कदेवको अनेकान्त और सप्तभङ्गीका मूल चौखटा समन्तभद्र स्वामीसे ही प्राप्त हुआ था। उनने समन्तभद्रभारतीको अकलङ्क भारती बनाया है।
अकलङ्कदेवने इन्हींकी आप्तमीमांसा पर अष्टशती टीका लिखी है और इनका सबहुमान श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है । समन्तभद्रके सूत्रोंको पकड़कर अकलङ्कदेवने जैनन्याय और प्रमाणशास्त्र की पूरी तरह प्रस्थापना की है। वे इनके लिये स्याद्वादपुण्योदधिप्रभावक भव्यैकलोकनयन और स्याद्वादवर्मपरिपालकके रूपमें श्रद्धेय रहे हैं और उन्हींके आदर्शपर इन्होंने अकलङ्कन्यायका भव्य प्रासाद खड़ा किया है । सिद्धसेन और अकलङ्क
__स्वतन्त्र विचारक आ० सिद्धसेनका सन्मतिसूत्र ग्रन्थ प्रसिद्ध है । द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशतिकाएँ और न्यायावतार इन्ही की कृति मानी जाती हैं। इनका समय वि० ५ वीं सदी माना जाता है । इनके समयकी उत्तरावधि आ० पूज्यपादका समय (वि० ५ वीं) है, क्योंकि उन्होंने द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशतिका (३।१६)से सर्वार्थसिद्धि (७/१३)में 'वियोजयति चासुभिः' श्लोक उद्धृत किया है । इनके सन्मतिसूत्रकी (१।३) 'तित्थयरवयण' गाथाका संस्कृतीकरण लघीयस्त्रय (इलो० ६७)में किया गया है । तत्त्वार्थवार्तिक (पृ० ८७) में सन्मति० (२।१६) की 'पण्णवणिजा' गाथा तथा पृ० ५४० में 'वियोजयति' श्लोक द्वात्रिंशतिका (३।१६) से उद्धत किया गया है । इस तरह सिद्धसेनका सम्मतितर्क अकलङ्कदेवको प्रमाणभूत रहा है। उसके अनेक मन्तव्योंका राजवार्तिकमें उल्लेख है । सिद्धिवि० (६।२१) के 'असिद्धः सिद्धसेनस्य' श्लोकमें इनका नामोल्लेख सर्वप्रथम किया गया है। यतिवृषभ और अकलङ्क
कषायपाहुड चूर्णिके कर्ता यतिवृषभ आगमिक विद्वान् हुए हैं। उनका तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ भी प्रसिद्ध है। तिलोयपण्णत्तिके वर्तमान स्वरूप में विद्वानोमें मतभेद है। इनका समय ई० ४७३ ६०९ के बीच निर्धारित किया गया है। अकलङ्कदेवने अपनी प्रारम्भिक दार्शनिक कृति लघीयस्त्रयके प्रवचन प्रवेशमें
"प्रणिपत्य महावीरं स्याद्वादेक्षणसप्तकम् ।
प्रमाणनयनिक्षेपानभिधास्ये यथागमम् ॥" इस मंगल प्रतिज्ञा श्लोकके अनन्तर आगमानुसार प्रमाण नय और निक्षेपका लक्षण करनेके लिये यह श्लोक लिखा है
"ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इष्यते ।
नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥" तिलोयपण्णत्तिके प्रथम अधिकारमें निम्न लिखित दो गाथाएँ हैं
"जो पमाणणयहिं णिक्खेवेणं णिक्खिदे अत्थं ।
तस्याजुत्तं जुत्त जत्तमजुत्त च पडिहादि ॥८२॥ (१) सन्मतिप्रकरण प्रस्ता० पृ० ४१ । जैनतर्कवा० प्रस्ता० पृ० १४१ ।
न्यायकुमु.प्र. प्रस्ता० पृ. ७२। (३) देखो-तिलोयप० द्वि० प्रस्ता० पृ० १५ । और जैनसा० और इ० वि० प्र० पृ० ५८६ । (४) जयधवला प्र० प्रस्ता० पृ० ५७। तिलोयप० द्वि० प्रस्ता० पृ० १५ । (५) लघी० पृ० १०॥
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