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________________ ग्रन्थकार अकलङ्क: तुलना पुष्पदन्त भूतबलि और अकलङ्क षटखण्डागम' सिद्धान्तग्रन्थके जीवट्ठाणकी सत्प्ररूपणाके कर्ता आचार्य पुष्पदन्त तथा शेष अंशके . तथा अन्य पाँच खंडोंके कर्ता आचार्य भूतबलि है । इनका रचना काल ई० प्रथम शताब्दी माना जाता है। अकलङ्कदेव पहिले सैद्धान्तिक-दर्शनिक थे पीछे उनका तार्किक-दार्शनिकरूप सामने आया है। तत्त्वार्थवार्तिकमें उन्होंने आगमके रूपमें जीवस्थान का उल्लेख किया है । मनःपर्यय ज्ञानके वर्णन में आगमके नामसे "मनसा मनः परिच्छिद्य" आदि महाबंध (पृ०२४) का अंश उद्धत किया है । इसी तरह जहाँ भी आगमिक वर्णन है अकलङ्कदेवने इन्हीं ग्रन्थोंका आधार लिया है। कुन्दकुन्द और अकलङ्क दिगम्बर परम्परामें आ० कुन्दकुन्द आम्नायके प्रवर्तक आचार्यों में हैं। आगमिक अकलङ्कको भूतबलि पुष्पदन्तके बाद जिनकी विरासत मिली है, वे हैं आचार्य कुन्दकुन्द । ये प्रथम सदीके आचार्य माने जाते हैं। इनके ग्रन्थों में दार्शनिकताकी पुट भी थोड़ी बहुत देखी जाती है । समयप्राभृत पञ्चास्तिकाय प्रवचनसार और नियमसारमें प्रायः इसके दर्शन होते हैं। अकलङ्कदेवने द्रव्यके उत्पाद व्यय और धौव्यसे भेदाभेदकी चरचामें कुन्दकुन्दकी विचार सरणिका पूरा लाभ लिया है। उमास्वाति और अकलङ्क जैन आगमिक और सैद्धान्तिक वाङमयको संस्कृतसूत्रमें निबद्ध करनेवाला आद्य ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र है । इसके कर्ताके नाम उमास्वाति और उमास्वामी दोनों प्रसिद्ध हैं। उन्हींकी एक उपाधि गृद्धपिच्छ थी । इसके दो पाठ प्रचलित हैं-एक भाष्यमान्य और दूसरा सर्वार्थसिद्धिमान्य । अकलङ्कदेवने सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ पर तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थ लिखा है तथा भाष्यमान्य सूत्रपाठ तथा भाष्य दोनोंकी आलोचना की है । भाष्यके एक दो वाक्योंको अपने तत्त्वार्थवार्तिक में वार्तिक बनाया है। दसवें अध्यायके अन्तका गद्य और पद्य सभी तत्त्वार्थवार्तिकमें हैं। तत्त्वार्थसूत्रके "प्रमाणनयैरधिगमः" इस सूत्रके अधिगमके उपायों पर ही लघीयस्त्रयका प्रमाणनयप्रवेश बनाया गया है। अकलङ्कदेव सिद्धिविनिश्चय आदि में सर्वत्र सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ के सूत्र ही उद्धृत करते हैं। समन्तभद्र और अकलङ्क सप्तभंगी और स्याद्वादके प्रतिष्ठापक युगप्रधान आचार्य समन्तभद्रके समयके सम्बन्धमें अभी ऐकमत्य नहीं है। जैनेन्द्र व्याकरणमें 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' उल्लेख रहने पर भी पं० सुखलालजी और पं० नाथूरामजी प्रेमी उन्हें पूज्यपादका वृद्ध समकालीन मानते हैं। इसका विशेष कारण यह दिया गया है किविद्यानन्दके उल्लेखानुसार 'मोक्षमार्गस्य नेतारम् ' श्लोक पर ही समन्तभद्रने आप्तमीमांसा बनाई है। यह निस्सन्देह सही है कि यह इलोक पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिका मंगलाचरण है, पर विद्यानन्द इसे सूत्रकारका ही कहते हैं, यद्यपि वे स्वयं इस श्लोक की तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें व्याख्या नहीं करते । ऐसी दशामें विद्यानन्द के उल्लेखकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि निर्बल हो जाती है और उनके 'स्वामिमीमांसितम्' का कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं रह जाता । दूसरी ओर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार इन्हें वि० की द्वितीय शताब्दीका विद्वान् समझते (१) डॉ० हीरालाल-पट्खंडागम प्रथम पु० प्रस्ता० पृ० २०। (२) वही पृ० ३५ । (३) त० वा० पृ० ७९, १३५, १५४ । (४) वही पृ० ८५ । (५) डॉ. ए. एन-उपाध्ये-प्रवचनसार भूमिका । (६) त० वा० पृ. १७। (७)त. सू. ११६ । (८) जैनसा० इ० पृ० ४५-४६। (९) जैनसा० इ० वि० प्र० पृ० ६९७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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