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________________ प्रस्तावना इस श्लोकमें अकलङ्कको लघुहव्वनृपतिका वरतनय-ज्येष्ठपुत्र या श्रेष्ठपुत्र बताया है। यह श्लोक श्रवणबेलगोला और मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंमें नहीं पाया जाता । व्यावरकी ताडपत्रीय प्रति तथा अन्य उत्तरप्रान्तीय प्रतियोंमें पाया जाता है। यह श्लोक चूँकि प्रथम अध्यायके अन्तमें दिया है तथा कुछ प्रतियोंमें उपलब्ध नहीं है अतः इसकी अकलङ्ककर्तृकता बहुत निश्चित नहीं कही जा सकती । फिर भी यदि यह श्लोक वस्तुतः अकलङ्ककर्तृक है या तत्समकालीन या निकट उत्तरवर्ती किसी आचार्यकी कृति है तो इससे अकलङ्क के पिताका नाम लघुहव्व सूचित होता है । हमने अकलङ्कग्रन्थत्रयकी प्रस्तावना (पृ० १२) में इस समस्याके सुलझानेके लिये निम्नलिखित वाक्य लिखे थे __"मुझे तो ऐसा लगता है कि लघुहव्व और पुरुषोत्तम एक ही व्यक्ति हैं । राष्ट्र कूट वंशीय इन्द्रराज द्वितीय तथा कृष्णराज प्रथम सगे भाई थे । इन्द्रराज द्वितीय का पुत्र दन्तिदर्ग द्वितीय अपने पित बाद राज्याधिकारी हुआ था। कर्नाटक प्रान्तमें पिताको अव्व या अप्प कहते हैं। संभव है कि दन्तिदुर्ग अपने चाचा कृष्णराजको भी अव्व कहता हो। यह एक साधारण नियम है कि जिसे राजा 'अव्व' कहता हो प्रजा भी उसे अव्व ही कहती है। कृष्णराज जिसका दूसरा नाम शुभतुंग था दन्तिदुर्गके बाद राज्याधिकारी हुआ । मालूम होता है कि पुरुषोत्तम कृष्णराजके प्रथमसे ही लघु-सहकारी रहे हैं, इसलिए स्वयं दन्तिदुर्ग और प्रजाजन इन्हें 'लघुअव्व' कहते हों । बादमें कृष्णराजके राज्यकालमें ये मन्त्री बने हो । कृष्णराज अपनी परिणत अवस्थामें राज्याधिकारी हुए थे, इसलिये यह माननेमें कोई आपत्ति नही है कि पुरुषोत्तमकी अवस्था भी करीब-करीब उतनी ही होगी और उनका श्रेष्ठ पुत्र अकलङ्क दन्तिदुर्ग द्वितीयकी सभामें जिनका उपनाम 'साहसतुंग' है अपने हिमशीतलकी सभामें हुए शास्त्रार्थकी बात कहे । पुरुषोत्तमका लघुअव्व नाम इतना रूढ़ हो गया था कि अकलंक भी उनके असली नाम पुरुषोत्तमकी अपेक्षा प्रसिद्ध नाम 'लघुअव्व' ही अधिक पसन्द करते हों । यदि तत्त्वार्थवार्तिकवाला उक्त श्लोक अकलङ्क या तत्समकालीन किसी अन्य आचार्यका है तो उसमें पुरुषोत्तमकी जगह 'लघुअव्व' नाम आना स्वाभाविक ही है। लघुअव्व एक तल्लुकेदार होकर भी विशिष्ट राजमान्य तो थे ही अतः वे नृपति भी कहे जाते हों । 'यदि पुरुषोत्तम और लघुअव्व के एक ही व्यक्ति होनेका अनुमान सत्य है तो कहना होगा कि अकलङ्ककी जन्मभूमि मान्यखेट या उसके पास ही होगी। उनके पिताका असली नाम पुरुषोत्तम तथा प्रचलित नाम 'लघुअव्व' होगा । लघुअव्व की जगह लघुहव्व होना तो उच्चारणकी विविधता और प्रतिके लेखन वैचित्र्यका फल है।” इसमें मैं यह और जोड़ देना चाहता हूँ कि-'यह श्लोक स्वयं अकलङ्कका तो प्रतीत नहीं होता साथ ही कथाकोशकार प्रभाचन्द्र (ई० ९६०-११६५) के पश्चात् ही वह तत्वार्थवार्तिककी कुछ प्रतियों में प्रक्षिप्त हुआ है। क्योंकि प्रभाचन्द्रने अकलङ्कदेवके तत्त्वार्थवार्तिकका न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ६४६) में निर्देश किया है । यदि तत्त्वार्थवार्तिकका में यह श्लोक होता तो प्रभाचन्द्र अपने गद्यकथाकोशकी कथामें अकलङ्कके पिताके 'लघुहव्व' नाम का निर्देश अवश्य करते । जैसा कि आगे सिद्ध किया जायगा कि अकलङ्कका समय ई० ७२० से ७८० तक है, तो उनका शुभतुग (ई० ७५६ से ७७२) के मन्त्रीका पुत्र होना इतिहासविरुद्ध नहीं हो पाता।' अकलङ्ककी तुलना इस प्रकरणमें क्रमशः उन पूर्ववर्ती और समकालीन आचार्योंकी तुलना प्रस्तुत की जाती है जिनसे अकलङ्कने अपने 'अकलङ्क न्याय' को समृद्ध किया है तथा जिनके मतोंकी समीक्षा की है- . (१) तत्त्वार्थवार्तिककी मूडबिद्रीकी भोजपत्रीय प्रति तथा श्रवणबेळगोलाकी ताडपत्रीय प्रतिमें यह श्लोक नहीं है । देखो भारतीयज्ञानपीठसे प्रकाशित संस्करण पृ० ९९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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