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प्रस्तावना
इस प्रस्तावना के तीन भाग हैं१ सम्पादन सामग्री और उसकी योजना, २ ग्रन्थकार और ३ ग्रन्थ ।
सम्पादन सामग्री और उसकी योजनामें प्रति परिचय, संस्करण परिचय और मुद्रण क्रम आदि का वर्णन होगा।
ग्रन्थकार विभागमें अकलङ्क देव और अनन्तवीर्य के व्यक्तित्वका परिचय और कालनिर्णय आदि होंगे।
ग्रन्थ विभागमें सिद्धिविनिश्चय और उसकी टीका में प्रतिपादित विषयों का ऐतिहासिक क्रमविकास की दृष्टि से तात्त्विक प्रतिपादन होगा।
१ सम्पादनसामग्री और उसकी योजनाअकलङ्ककी अलभ्य कृति
मध्यकालीन भारतीय दर्शनके इतिहासमें मीसांसकधुरीण कुमारिल और तार्किकचक्रचूडामणि बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति की तरह स्याद्वादपञ्चानन तर्कभूवल्लभ भट्टाकलङ्कदेव भी युगप्रवर्तक आचार्य थे। ये जैन प्रमाणशास्त्रके व्यवस्थापक और प्रतिष्ठापक महान् ज्योतिर्धर थे। युग युग में ऐसे विरल पुरुष-पुन्नाग होते हैं जिनके बिना वह युग हतप्रभ और निरालोक कहा जाता है ।
प्रस्तुत संस्करण में इन्हीं अकलङ्कदेवकी सुप्रसिद्ध किन्तु अलभ्य कृति सिद्धिविनिश्चय अपनी स्वोपज्ञवृत्ति तथा अनन्तवीर्यकृत टीका के साथ प्रथम बार प्रकाशित हो रही है। इनमें मूल सिद्धि विनिश्चय तथा उसकी स्वोपज्ञवृत्ति का कोई हस्तलेख कहीं पर भी उपलब्ध नहीं हो सका। टीका से एक एक शब्द चुन-चुन कर उनका अस्तित्व प्रकाशमें लाया जा रहा है।
प्रति परिचय- सिद्धिविनिश्चय टीका की एकमात्र प्रति श्रद्धेय डॉ० पं० सुखलालजी को उनके सन्मतितर्कके सम्पादन काल (सन् १९२६ )में कोडाय ग्राम (कच्छ) के जैन ज्ञानभंडारसे उपलब्ध हुई थी। इसका उपयोग उन्होंने सन्मतितर्कके सम्पादनमें यत्र-तत्र किया है। इस प्रतिमें सिद्धिविनिश्चयके मूल श्लोक तथा मूलवृत्तिगद्यभाग पृथक् नहीं लिखे गये हैं और न कोई भेदक चिह्न ही दिया गया है जिससे यह ज्ञात हो सके कि ये शब्द मूलश्लोक और मूलवृत्तिके हैं। १८ हजार श्लोक प्रमाण इस टीकाग्रन्थरूपी समुद्र में वे मूल रत्न यत्रतत्र विखरे हुए हैं।
प्रति पडिमात्रामें लिखी हुई है । अक्षर वाँचने लायक होने पर भी यत्र-तत्र घिस गये हैं। कई पत्रोंके एक दूसरेसे सट जानेके कारण अक्षरोंकी दुर्गति हो गई है। प्रति अशुद्धियों का भण्डार है । प्रत्येक पृष्ठमें दस
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