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________________ २ प्रस्तावना पं० नीला नतु ननु पन्द्रह अशुद्धियोंसे कम न होगी। संस्कृत भाषाके लेखकोंमें संयुक्ताक्षरों तथा सदृश अक्षरोंको अन्यथा पढ़नेसे बहुतसी अशुद्धियाँ हो जाती है । अशुद्धियोंके कुछ कारण ये हैं पृ० १ पं० ८ स्व और स का भेद नहीं कर पाना स्वैरं सैर पृ० २ पं. ७ श और स , , , दिशति दिसति पृ० ३ पं० १३ प और व ,, , पीता- वीतान और त्र, तन्न तत्र १७ च और व वायदिस्य चापदिश्य प और य ला औरत्वा ,, नीत्वा पृ० . १९ पं० २७ त और न , पृ० ४० पं० क और व " एक पृ० २१४ च और व , चित्क्षण वित्क्षण स और भ । पृ० ३२६ भाव्य ध्य और व्य ___पं० ण्य और न्य, मण्यादी मन्यादी पृ० ५६७ त और व " " तजा वजा पृ० ६५३ पं० २९ श्व और स्व ,, शार्थ स्वार्थ पृ० ७०९ पं० च्च और न्न , , शब्दाच्च शब्दान्न पृ० ७०९ पं० ट और उ " " कट कउ पृ० ७१२ पं०८ च्छ्र और द्न, , तच्छ्रवण तद्ग्रवण पृ० ७२० पं. १० भ्य और त " " तेभ्यः तेतः पृ० ७३३ पं० १३ स्व और एव" " " स्वभाव एवभाव पृ० ७३७ पं० २ न और व , नयः वयः साध्य इत्यादि । ह्रस्व का दीर्घ, दीर्घ का ह्रस्व, अनुस्वार का अभाव, सदृश शब्दोंके कारण पाठ छोड़ना या दो बार लिख देना आदि जितने अशुद्धियों के कारण हो सकते हैं उन सबके उदाहरण इस प्रतिमें मिल सकते हैं । यह प्रति पडिमात्रामें लिखी गई है, अतः कुछ अशुद्धियाँ 'ए'की मात्राको ठीक न पढ़नेके कारण भी हुई हैं। न्यायशस्त्रके ग्रन्थोंमें नतु ओर ननुका विपर्यास अर्थका अनर्थ कर देता है। इस प्रतिमें अशुद्धियोंका पूरा इतिहास विद्यमान है। मालूम होता है कि प्रति लिखते समय एक बोलनेवाला तथा दूसरा लिखनेवाला था, अतः उच्चारणके दोषसे भी सैकड़ों अशुद्धियाँ आ गई हैं। प्रतिका ४८७ वाँ पत्र लिखनेसे अनेक पत्रोंमें अक्षरों का स्थान ... 'इस प्रकारके बिन्दु देकर छोड़ दिया गया है। प्रतिकी प्रशस्तियाँ इस प्रतिमें दो प्रशस्तियाँ दी गई हैं-एक दाताकी और दूसरी लेखककी। प्रथम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि श्री शान्तिनामक विद्वान् अणुव्रती उदार भव्य श्रावकने सिद्धिविनिश्चय टीकाकी प्रति लिखवा कर स्याद्वादविद्याकोविद श्री नागदेव गणिको दान की थी। श्री विष्णुदास लेखकने इसे संवत् १६६२ में लिखा था । यह प्रशस्ति उस आदर्शभूत मूल प्रतिकी मालूम होती है जिस परसे प्रस्तुत प्रतिकी नकल की गई होगी; क्योंकि इसके बाद ही एक और लेखक प्रशस्ति दी गई है। उसमें बताया है कि-'आर्यरक्षित गुरुके विशाल (१) देखो आगे मुद्रित प्रतिका चित्र । (२) सिद्धिवि० टी० पृ० ७५२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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