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है, अगर इसके विचार से इसका आचरण आया है तो यह आदमी चोर है। मगर यह फर्क एकदम से दिखाई नहीं पड़ता।
जब आचरण से कोई विचार आता है, तब उसकी सुगंध और है, क्योंकि आचरण आत्मा से आता है। जब किसी विचार से आचरण आता है तो विचार, शास्त्र से आता है। शास्त्र से आया हुआ विचार खुद भी चोरी है, फिर शास्त्र से आये हुए विचार के अनुसार जीवन को ढाल लेना और बड़ी चोरी है। और जो इस तरह की चोरियों में भटक जाते हैं वे आत्मा को खो देते हैं। उन्हें पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि वे कौन हैं?
नहीं, मैं नहीं कहता हूं कि विचार के अनुसार आचरण। मैं कहता हूं, आचरण के अनुसार विचार। बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे आप, क्योंकि आचरण कहां से लायें? अगर विचार के अनुसार आचरण हो तो विचार तो मिल सकते हैं, आचरण कहां से लायें! आचरण की कोई दुकान नहीं है। आचरण कहीं बिकता नहीं। विचार तो बिकते हैं। विचारों की तो किताबें हैं। आचरणों की कोई किताबें नहीं। आचरण का कोई शास्त्र नहीं है। इसलिए आचरण आप कहां से लायेंगे? अगर महावीर से लायेंगे तो फिर विचार से आया, बुद्ध से लायेंगे तो विचार से आया, कृष्ण से लायेंगे तो विचार से आया। आचरण कहां से लाइयेगा? अगर किसी दूसरे से लायेंगे तो पहले विचार आयेगा। अगर अपने से लायेंगे तो बात और हो जायेगी। तब पहले विचार नहीं आयेगा, पहले अनुभव आयेगा।
अगर चोर आचरण है आपका. तो कपा करके चोर जैसा विचार करिये। इसमें एक सरलता होगी। आपका आचरण चोर का है, तो चोर जैसा ही विचार करिये। और मैं आपसे कहता हं कि अगर आपका आचरण चोर का है और विचार भी चोर का है तो आप चोरी के बाहर हो जायेंगे! अगर आपका आचरण चोर का है और विचार अचौर्य का है तो आप चोरी के बाहर कभी नहीं होंगे। क्योंकि आप कहेंगे आचरण तो बाहरी चीज है, असली चीज तो विचार है। ऐसे तो मैं अचोर हूं, मजबूरियों में चोर बन जाता हूं। तो धीरे-धीरे साध लूंगा, आचरण भी बदल लूंगा। जब विचार बदल गया तो आचरण भी बदल जायेगा-व्रत ले लूंगा, कसम खा लूंगा। तो आप जिंदगी भर पोस्टपोन करते रहेंगे, क्योंकि आप भीतरी रूप से अनुभव करेंगे कि विचार तो अचोरी का है। ऐसे तो आदमी मैं भीतर से अच्छा हूं। ऐसी बाहर की परिस्थितियां हैं, कारण हैं, जो चोर बना देते हैं, चोर मैं हूं नहीं। __यह ध्यान रखें आप कि आपका जो व्यवहार है, वह बहुत दूर है आपसे। आपका जो विचार है वह बहुत निकट है। इसलिए अगर हम किसी आदमी को उसके विचार में गलती बतायें तो वह मानने को राजी नहीं होता। अगर हम किसी आदमी को कहें कि तुम्हारे पैर में फोड़ा है, वह झंझट नहीं करता, वह कहता है, इलाज बताइये! लेकिन हम किसी आदमी से कहें कि तुम्हारे मन में रोग है, तो वह लड़ने को तैयार हो जाता है, वह कहता है, आपकी गलती है देखने में।
शरीर के रोग को आदमी स्वीकार कर लेता है, वह बहुत दूर है। मन के फोड़े को वह स्वीकार नहीं करता, वह बहुत निकट है। मन के फोड़े पर चोट उस पर ही चोट है। तो हमने
अचौर्य
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