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जीसस, बुद्ध या महावीर एक असभ्य दुनिया में पैदा हुए थे । सभ्य दुनिया में हम जीसस, बुद्ध और महावीर जैसे हैसियत के आदमी पैदा नहीं कर पा रहे हैं। उसके कारण हैं। बेचैनी तो उससे भी ज्यादा है। असभ्य आदमी इतना बेचैन नहीं था । बेचैनी तो बहुत है, लेकिन यह पता नहीं चलता कि बेचैनी क्यों है ? बेचैनी क्यों है, इसका हमें बोध कम हो गया।
तो मैं आपसे कहना चाहूंगा अचौर्य को समझने के लिए अपने चेहरे बदलने के प्रति आपको सजग होना पड़ेगा। सजग होने की एक तरकीब है और सजग होने का एक अर्थ है। आप जितने सजग होते हैं किसी भी चीज के प्रति, उसकी गति कम हो जाती है।
कभी आपने फिल्म देखी है। उसकी कभी मशीन बिगड़ जाये, मशीन के बिगड़ने का मतलब क्या ? मशीन धीमी चलने लगे, प्रोजेक्टर धीमा चलने लगे तो परदे पर फिल्म की गति क्षीण हो जाती है। तो जो आदमी एकदम से हाथ उठाता मालूम पड़ रहा था परदे पर, फिर दस आदमी धीरे-धीरे हाथ उठाते हुए मालूम पड़ते हैं और हाथों के बीच गैप हो जाता है। जब मैं भी हाथ उठाता हूं तो यह हाथ एक झटके में नहीं उठता, सिर्फ आपकी आंख इतनी गति को पकड़ नहीं पाती अन्यथा हाथ को बीस पोजिशन लेनी पड़ती इतने हटने में। लेकिन अगर गौर से देखें, और मशीन आपकी थोड़ी धीमी हो जाये... और गौर से देखने से धीमी हो जाती है। किसी भी चीज को अगर बहुत गौर से देखें तो प्रक्रिया धीमी हो जाती है, दो कारण से। क्योंकि गौर से देखने के लिए पहले तो आपको खड़ा होना पड़ता है। आपको रुकना पड़ता है। अगर आप अपने चेहरे बदलने की प्रक्रियाओं को गौर से देखें तो प्रक्रिया
मी हो जाएगी और आप देख सकेंगे कि कब आपका चेहरा बदला और अपने पर हंस सकेंगे कि चेहरा बदल लिया गया।
अचौर्य के महाव्रत में आप अपने चेहरे बदलने को देखना । एक आदमी दुकान से मंदिर की ओर जा रहा है। उसे पता रखना चाहिए कि कब उसने चेहरा बदला, किस स्टेप पर, मंदिर की किस सीढ़ी पर चेहरा बदला गया। दुकान पर वही तो चेहरा नहीं था जो मंदिर में होता है, बदलाहट कहीं तो हुई है जरूर। कहीं उसने चेहरा बदला है। पुरुष वैनिटी बैग वगैरह साथ नहीं रखते, स्त्रियां साथ रखती हैं। बस से उतरने के पहले चेहरा बदलती हैं, साथ में इंतजाम भी रखती हैं। वैसा बहुत भीतरी इंतजाम हम सबके पास है - जहां से हम चेहरे निकालते हैं और बदलते हैं। जब आप घर से मंदिर की तरफ जा रहे हैं तब आप जरा होशपूर्वक जानना कि चेहरा किस जगह बदलता है । किस जगह दुकानदार हटता है और साधक आता है। किस जगह दुकान पर बैठा हुआ आदमी जाता है और मंदिर में प्रवेश करने वाला आदमी आता है। जहां आप जूते उतारते हैं मंदिर के बाहर वहीं तो यह परिवर्तन नहीं होता? जरूरी नहीं है कि वहीं हो। असल में जूते उतरवाये इसलिए जाते हैं वहां कि कृपया अब चेहरा बदलो, अब वह जगह आ गयी जहां आपका पुराना ढंग नहीं चलेगा, जूता यहां उतारो! जहां लिखा रहता है 'कृपया जूता यहां' वहीं नीचे तख्ती होनी चाहिए 'कृपया चेहरे यहां।' कई लोग अपने चेहरे लिये भीतर घुस जाते हैं। जूता लिये मंदिर में चले जाये उतनी
अचौर्य
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