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नहीं, न तो वस्तुएं पकड़ने योग्य हैं, न वस्तुएं छोड़ने योग्य हैं। इसलिए अपरिग्रह का अर्थ वैराग्य नहीं है, अपरिग्रह का अर्थ विरक्ति नहीं है, अपरिग्रह का अर्थ विराग नहीं है, अपरिग्रह का अर्थ त्याग नहीं है। यह आखिरी बात ठीक से खयाल में ले लेंगे, अन्यथा मैंने परिग्रह के संबंध में जो कहा, कहीं वह आपको त्यागी न बना दे, कहीं आप संसार को छोड़ कर न भागने लगें, कहीं आप घर-द्वार को छोड़ कर जंगल की राह न ले लें। __ नहीं, परिग्रह को जो समझ लेगा, वह छोड़ने की बात भूल कर न करेगा। क्योंकि छोड़ा उसे जा सकता है जिसे कभी पकड़ा गया हो। जो परिग्रह को समझ लेगा, वह पायेगा कि कुछ पकड़ा ही नहीं जा सका है, छोड़ना किसे है? छोड़ कैसे सकते हैं, छोड़ने का उपाय कहां है? जो दूसरा है, जो अन्य है, जो वस्तु है, वह वस्तु है, उसे छोड़ा नहीं जा सकता। मकान मकान है। अपरिग्रह का मतलब यह है कि मकान के भीतर एक आदमी हो, चाहे बाहर हो, वह नॉन-पजेसिव हो गया; उसका कोई मालकियत का भाव नहीं रहा। अब वह मालिक नहीं है। उसने बाहर की दुनिया में मालकियत खोजनी बंद कर दी। उसका यह मतलब नहीं है कि बाहर की दुनिया को छोड़ कर वह भाग गया। भागेगा कहां? सब जगह जहां जायेगा, बाहर की दुनिया है। और अगर कोई घर छोड़ कर जायेगा और एक वृक्ष के नीचे बैठ जायेगा, और कल दूसरा आदमी आकर संन्यासी उससे कहेगा कि हटो यहां से, इस वृक्ष के नीचे हम धूनी रमाना चाहते हैं, तो वह कहेगा : बंद करो बकवास। इस पर मेरा पहले से कब्जा है। यहां मैं पहले से हूं। यह वृक्ष मेरा है, झंडा देखो वृक्ष के ऊपर लगा है। यह मंदिर मेरा है, यह आश्रम मेरा है।
परिग्रह से भागा हुआ आदमी फिर परिग्रह पैदा कर लेगा। क्योंकि परिग्रह से भागा हुआ आदमी समझ नहीं पाया कि परिग्रह क्या है। वह फिर पैदा कर लेगा। हां, जनता उसको रोकेगी, अनुयायी उसको रोकेंगे। वह सब तरह की चेष्टा करेंगे कि परिग्रह पैदा न हो जाये। वे कहेंगे, मकान मत बनने दो। वे कहेंगे, मंदिर मत बनने दो। वे कहेंगे, आश्रम मत बनने दो। वे कहेंगे, यह मत बनने दो, वह मत बनने दो। वे सब तरफ से रोकेंगे। तब संन्यासी बहुत सूक्ष्म रास्ते खोजेगा। रुपये इकट्ठे करना मुश्किल हो जायेगा तो वह सूक्ष्म रास्ते खोजेगा। वह अनुयायी इकट्ठे करने लगेगा। और जो मजा किसी को तिजोरी के सामने रुपया गिनने में आता है, वही मजा उसको अनुयायियों को गिनने में आने लगेगा कि कितने अनुयायी हो गये। गिनता रहेगा, कहेगा सात सौ, कि हजार, कि दस हजार, कि लाख, कि दो लाख। कितने अनुयायी हैं? कितने शिष्य हैं? कान फूंकने लगेगा, मंत्र बांटने लगेगा और इकट्ठे करने लगेगा आंकड़े। आंकड़े का मजा है-रुपये में हो कि अनुयायियों में हो, कोई फर्क नहीं पड़ता है।
जिंदगी भागने से नहीं समझी जा सकती। जो भागता है वह नासमझी में भाग गया। जिंदगी जहां है वहीं समझने की जरूरत है। और जब समझ ली जाती है तो अचानक हम पाते हैं कि कुछ चीजें एकदम से विदा हो गयीं। छोड़नी नहीं पड़तीं। एकदम से अचानक हम पाते हैं कि पति पत्नी अपनी जगह हैं, लेकिन बीच से पजेसन खो गया, मालकियत चली गई।
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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