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________________ नहीं, उनका नाम ही लोगों को पता नहीं है, क्योंकि नाम वगैरह सब खेल की बातें हैं। उन संन्यासियों ने कभी अपना नाम नहीं बताया कि उनका नाम क्या है। जब कोई उनसे पूछता कि तुम कौन हो, तो वे एक-दूसरे की तरफ देखकर हंसते, और इतने जोर से खिलखिलाते कि पूछने वाला भी थोड़ी देर में हंसने लगता। धीरे-धीरे उनकी हंसी गांव भर में फैल जाती। तो लोग उनको इतना ही जानतेः द थ्री लॉफिंग सेंट्स, तीन हंसते हुए संन्यासी। उनका नाम कुछ रहा नहीं। जब भी उनसे कोई सवाल पूछता तो वे हंसते। उन्होंने हंसने से ही एक उत्तर दिया। जब भी कोई उनसे पूछता कि आप हंसते क्यों हैं हमारे सवालों से? तो वे कहते कि तुम इतनी गंभीरता से पूछते हो कि तुम्हें दिया गया कोई भी उत्तर खतरनाक सिद्ध होगा। तुम उसको भी गंभीरता से पकड़ लोगे। परिग्रह नासमझी है, तो परिग्रह के खिलाफ साधा गया त्याग भी नासमझी है। चीजों को पकड़ना पागलपन है, तो चीजों को छोड़ कर भागना कम पागलपन नहीं है। चीजों के प्रति मोहग्रस्त होना पागलपन है, तो चीजों के प्रति विरक्त होना कम पागलपन नहीं है। ये दोनों ही पागलपन हैं, एक-दूसरे की तरफ पीठ किये हुए खड़े हैं। और दोनों पागल सोच रहे हैं यही कि कहीं दूसरा मजा न ले रहा हो। ___मुझे संन्यासी मिलते हैं जो मुझे कहते हैं कि कई दफा मन में ऐसा संदेह उठने लगता है कि कहीं हमने भूल तो नहीं की? उठेगा, स्वाभाविक है। संन्यासी के मन में यह खयाल उठना स्वाभाविक है कि कहीं मैंने भल तो नहीं की जो मैं सब छोड कर भाग आया। जो लोग वहां भोग रहे हैं, कहीं बड़े आनंद में तो नहीं हैं? और जो भोग रहे हैं वे बड़े परेशान हैं, वे संन्यासियों के पैर छूते रहते हैं जाकर। वे सोचते रहते हैं कि संन्यासी बड़े आनंद में होगा। हम तो बड़े दुख में पड़े हैं। यह भ्रांति चलती रहती है और हमारे चेहरे धोखा देते रहते हैं। संन्यासी एकांत में संदिग्ध होता है, भीड़ में आश्वस्त हो जाता है। जब लोग उसके पैर छूते हैं, तब उसे पक्का हो जाता है कि नहीं, ये लोग आनंद में नहीं हो सकते, नहीं तो मेरे पैर छूने न आते। एकांत में संदिग्ध हो जाता है, जब भीड़ हट जाती है। इसलिए अगर किसी को अपने झूठे संन्यास को बनाये रखना हो तो भीड़ अनिवार्य है, अन्यथा बहुत मुश्किल है संन्यास को बनाये रखना। अकेले में संन्यासी संदिग्ध हो जाता है, कि पता नहीं, गांव में लोग आनंद न लूट रहे हों। इसलिए धीरे-धीरे सब संन्यासी गांव में आ जाते हैं। वहां दोहरे फायदे होते हैं। एक तो लोग सामने रहते हैं। दूसरे, लोग पैर छूते हैं, आदर देते हैं तो संन्यासी को भरोसा आता है कि नहीं, अगर ये आनंद में होते तो इधर मेरे पास न आते। त्यागी के पास आ रहे हैं। पर संन्यासी को पता नहीं कि इनके भी संदेह के क्षण हैं। ये भी संदेह से भर जाते हैं कि पता नहीं. संन्यासी आनंद न लट रहा हो। असल में दूसरा आनंद लूट रहा है, यह खयाल हम सबके मन में होता ही है। क्योंकि दूसरों का हम चेहरा जानते हैं और अपनी आत्मा जानते हैं। अपना दुख परिचित होता है, दूसरे के मुखौटे परिचित होते हैं। अपरिग्रह 45 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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