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________________ एक रुपया, मैं सोचता हूं, मुझे मिल जाये तो आनंदित हो जाऊंगा। रुपया मेरे हाथ में आ जाता है, आनंदित बिलकुल नहीं होता। सोचता हूं, दूसरा रुपया मिल जाये; लेकिन दूसरा रुपया भी पहले रुपये की प्रतिलिपि है, कापी है, यह खयाल में नहीं आता। दूसरा भी मिल जाता है। तीसरा रुपया भी मिल जाता है, तीसरा रुपया भी दूसरे की प्रतिलिपि है। वह भी उसी का चेहरा है। तीसरा भी मिल जाता है। ये मिलते चले जाते हैं, मिलते चले जाते हैं। एक दिन मैं पाता हूं कि मैं तो खो गया, रुपये ही रुपये हो गये हैं। लेकिन वह जो पहले रुपये के वक्त जो आकाश कहीं मुझे छूता मालूम पड़ता था, वह करोड़ रुपये के बाद भी वहीं छूता हुआ मालूम पड़ता है। फासला उतना ही है, जितना एक रुपये की आशा में था, उतना ही करोड़ रुपये के बाद फिर पुनः उसी आशा में है। इसलिए कभी-कभी हमें हैरानी होती है कि करोड़पति भी एक रुपये के लिए इतना पागल क्यों होता है! करोड़पति भी एक रुपये के लिए उतना ही दीवाना होता है जितना जिसके पास एक नहीं है वह होता है; क्योंकि फासला दोनों का सदा बराबर है। आशा और उपलब्धि का फासला वही है। आपके पास कितना है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह जो आगे है, जो नहीं है आपके पास, वह दौड़ाता चला जाता है। ___ और कई बार तो करोड़पति और भी कृपण हो जाता है, क्योंकि उसके अनुभव ने कहा कि करोड़ रुपये हो गये, फिर भी अभी उपलब्धि नहीं हुई। जीवन तो चुक गया। अब एकएक रुपये को जितने जोर से पकड़ सके-क्योंकि जीवन चुक रहा है। इधर जीवन समाप्त हो रहा है। जब एक रुपया पास था तो जीवन भी पास था। दौड़ भी थी, ताकत भी थी, पर अब वह भी खत्म हो गयी। अब करोड़ रुपये तो पास हो गये हैं, पर जीवन की शक्ति क्षीण हो गयी है। इसलिए बूढ़ा होते-होते आदमी और परिग्रही हो जाता है, और जोर से पकड़ने लगता है कि अब जिंदगी तो बहुत कम है। जितनी जल्दी, जितना ज्यादा पकड़ा जा सके, जितनी जल्दी जितनी यात्रा की जा सके...! __सुना है मैंने, एलिस नाम की एक लड़की स्वर्ग पहुंच गयी है और वहां जाकर तकलीफ में है। भूखी है, प्यासी है, खड़ी है। दूर की यात्रा है जमीन से स्वर्ग तक की, परियों के देश तक की, और फिर परियों की रानी उसे दिखायी पड़ी, वृक्ष के नीचे खड़ी है और बुला रही है। आवाज सुनायी पड़ती है। आवाजें बड़ी भ्रामक हैं, वे सुनायी पड़ती हैं। हाथ दिखायी पड़ता है। हाथ बड़े भ्रामक हैं, वे दिखायी पड़ते हैं। और उसके आस-पास मिठाइयों का ढेर लगा है, फल-फूल का ढेर लगा है; और वह भूखी लड़की दौड़ना शुरू कर देती है। सुबह है, सूरज उग रहा है। वह भागती है, भागती है। दोपहर हो गयी, सूरज सिर पर आ गया, लेकिन फासला उतना का उतना है। लेकिन वह लड़की लड़की है, अगर बूढ़ी होती तो रुक कर सोचती भी नहीं। वह लड़की खड़ी होकर सोचती है कि बात क्या है? सुबह हो गयी, दोपहर हो गयी दौड़तेदौड़ते, और जो इतनी निकट मालूम पड़ती थी रानी, अब भी उतनी ही निकट है! कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। डिस्टेंस वही है! तो वह चिल्ला कर पूछती है कि रानी, यह तुम्हारा देश 38 ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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