________________
होते हैं कि मिलते ही वह बेकार हो गयी। आप फिर पुरानी जगह खड़े हो गये, जहां आप मिलने के पहले थे। वही रुख किसी और चीज के लिए हो गया। आप एक भूख हैं, एक खालीपन, एक रिक्तता, जो हर चीज के बाद फिर आगे आकर खड़ी हो जाती है। आदमी एक क्षितिज की भांति, होरिजन की भांति है।
देखते हैं, आकाश छूता हुआ मालूम पड़ता है जमीन को। चलते चले जायें, लगता है यही रहा पास-दस मील होगा, बीस मील होगा। अभी पहुंच जायेंगे। पहुंचते हैं और पाते हैं कि आकाश बीस मील आगे हट गया। हट नहीं सकता था अगर वहां होता। आपके चलने से आकाश के हटने का कोई संबंध नहीं है। आकाश कभी भी कहीं पृथ्वी को नहीं छूता है, सिर्फ छूता हुआ दिखायी पड़ता है। पृथ्वी गोल है, और इसलिए आकाश छूता हुआ दिखाई पड़ता है। आकाश कहीं भी छूता नहीं। __मनुष्य की वासनाएं सर्कुलर हैं, गोल हैं, और इसलिए आशा उपलब्धि बनती हुई दिखायी पड़ती है, कभी बनती नहीं। मनुष्य की वासनाएं वर्तुलाकार हैं, जैसे पृथ्वी गोल है,
और आशा का आकाश चारों तरफ है, तो ऐसा लगता है, ये रहे दस मील। अभी पहुंच जाऊंगा जहां आशा उपलब्धि बन जायेगी, जहां जो मैंने चाहा है, वह मिल जायेगा और मैं तृप्त हो जाऊंगा। दस मील चल कर पता चलता है कि होरीजन आगे चला गया। आकाश आगे बढ़ गया, वह अब और आगे जाकर छू रहा है। फिर हम बढ़ते हैं, और जिंदगी भर बढ़ते रहते हैं, और अनेक जिंदगी बढ़ते रहते हैं। __और मजा यह है कि हमें यह कभी खयाल नहीं आता कि दस मील पहले जो आकाश छूता हुआ दिखायी पड़ता था, वह फिर दस मील आगे दिखायी पड़ने लगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आकाश छूता ही नहीं। अन्यथा आकाश आप से डर कर भाग रहा हो और जमीन को छूने के स्थान बदल रहा हो, ऐसा तो नहीं हो सकता।
फिर और बड़े मजे की बात है कि हमसे दस मील आगे जो और खड़े हैं वे भी भाग रहे हैं और जहां हमें लगता है कि आकाश छूता है, वहां खड़े लोग भी और आगे भाग रहे हैं। उन लोगों के भी जो आगे हैं, जहां उन्हें लगता है कि आकाश छूता है, वे भी भाग रहे हैं। जब सारी पृथ्वी भाग रही हो, तो जिन्हें थोड़ा भी विवेक है, उन्हें यह स्मरण आ जाना कठिन नहीं है कि आकाश पृथ्वी को कहीं छूता ही नहीं। छूना सिर्फ एपियरेंस है, सिर्फ छूता हुआ मालूम पड़ता है। आशा कहीं उपलब्धि नहीं बनती। वासना कहीं तृप्ति नहीं बनती, कामना कहीं पूर्ण नहीं होती, सिर्फ छूती हुई, होती हुई मालूम पड़ती है! और आदमी दौड़ता चला जाता है।
इसलिए परिग्रह के संबंध में अपने अतीत-अनुभव को पूरा-का-पूरा देख लेना जरूरी है। लेकिन हम धोखा देने में कुशल हैं। दूसरे को धोखा देने में उतने कुशल नहीं हैं जितना अपने को धोखा देने में कुशल हैं। दूसरे को धोखा देना बहुत मुश्किल भी है, क्योंकि दूसरा जो है वहां। पर अपने को धोखा देना बहुत आसान है, सेल्फ-डिसेप्शन बहुत ही आसान है। हम अपने को धोखा दिये चले जाते हैं।
अपरिग्रह
37
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org