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कि क्या उससे आप जरा भी, रंचमात्र भी भर सके हैं? जो भी आपके पास है, क्या उसने इंच भर भी कहीं आपको भरा है ?
सबके पास कुछ न कुछ है। इस 'कुछ' ने आपको जरा भी भरा हो तो फिर आप इस 'कुछ' को बढ़ाने में लग जाना। थोड़ा भरा है तो और ज्यादा भर सकेगा, और ज्यादा भर सकेगा, और ज्यादा भर सकेगा। लेकिन अगर इस 'कुछ' ने बिलकुल न भरा हो तो फिर थोड़ा समझना पड़ेगा कि यह 'कुछ' कितना ही ज्यादा हो जाये तो भी भर नहीं पाएगा। यह गणित बहुत सीधा है, लेकिन अनुभव हमेशा आशा के सामने हार जाता है। हमारा अ का अनुभव तो यही होता है कि परिग्रह भर नहीं पाया, लेकिन भविष्य की आशा यही हो है कि शायद कुछ और मिल जाये, और भर जाये ।
सुना है मैंने कि एक गांव में एक आदमी की तीसरी पत्नी मरी और उसने फिर चौथी शादी की। तो गांव के लोग उसे कुछ भेंट करना चाहते थे, लेकिन भेंट करते-करते थक गये थे। तीन दफा शादी कर चुका था। हर बार भेंट कम होती चली गई थी। जब उसने चौथी शादी की तो उम्र भी बहुत हो गई थी और गांव के लोग भी परेशान हो गये थे कि अब क्या भेंट करें। तो गांव के लोगों ने एक तख्ती उसे भेंट की जिस पर लिखा था - अनुभव के ऊपर आशा की विजय। तीन पत्नियों का अनुभव भी उसको चौथी पत्नी से न रोक पाया। पूरा गांव जानता था कि जब तक पत्नी जिंदा रहती है, तब तक वह गांव में पत्नी के जिंदा होने के लिए रोता है। और जब पत्नी मर जाती है तो पत्नी के मरने के लिए रोता है ।
अनुभव पर आशा सदा जीत जाती है । परिग्रही का चित्त जो है वह आशा से बंधा हुआ चलता है। अपरिग्रह की दृष्टि तो तभी आयेगी जब आशा पर अनुभव जीते। आपका अतीत, आपका अनुभव पर्याप्त है कहने को कि सब पाकर भी कुछ पाया नहीं गया है । और वे जो राष्ट्रपति के पदों पर पहुंच जाते हैं, वे कुर्सियों पर बैठ कर अचानक पाते हैं कि कुर्सी पर बैठ गये, पाया कुछ भी नहीं गया है।
असल में जहां पाना है वह है दिशा बीइंग की, और जो हम पा रहे हैं वह है दिशा हैविंग की। जो हम पा रहे हैं वे हैं चीजें, और जो हमें पाना है वह है आत्मा । ये चीजें कभी भी आत्मा नहीं बन सकतीं। यह भ्रांत - दौड़ एक जिंदगी नहीं, अनंत जिंदगी चलती है। असल में हम अपने पुराने अनुभवों को भुलाते चले जाते हैं। ऐसा नहीं है कि पिछले जन्म के अनुभव हमारे भूल गये हैं, हमने भुला दिये हैं। हम इसी जन्म के अनुभवों को भुलाते, उपेक्षा करते चले जाते हैं। हम सदा ही अनुभव को इंकार करते चले जाते हैं और हम सोचते हैं कि जो अ तक हुआ उससे भिन्न आगे हो सकता है। अनेक जन्मों का अनुभव भी हमें इस बात से नहीं रोक पाता है कि हम वस्तु को आत्मा न बना सकेंगे। हैविंग, बीइंग नहीं बन सकता है। वह असंभावना है।
लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि असंभव की भी आकांक्षा बड़ी रसपूर्ण होती है । जो नहीं हो सकता, उसको करने का भी दिल होता है। कई बार तो इसीलिए होता है कि वह नहीं हो सकता । अब चांद पर चढ़ने का मजा चला गया। हजारों साल से आदमी को था ।
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अपरिग्रह 35
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