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जाऊं। लेकिन परतंत्रता दोहरी है। जंजीरें दोनों तरफ कस जाती हैं। जेलखाने में वे जो कैदी बंद हैं वे ही जेल में बंद नहीं हैं। वह जो जेलखाने के बाहर संतरी खड़ा हुआ है वह भी उतना ही बंधा है। एक दीवाल के बाहर बंधा है, एक दीवाल के भीतर बंधा है। न दीवाल के भीतर वाला भाग सकता है, न दीवाल के बाहर वाला भाग सकता है। और बड़े मजे की बात है कि दीवाल के भीतर वाला तो भागने का उपाय भी करे, दीवाल के बाहर वाला भागने का उपाय भी नहीं करता है। वह इस खयाल में है कि स्वतंत्र है।
मैंने सुना है कि डाकुओं के एक गिरोह ने एक नेता को पकड़ लिया। जंगल में निकलती थी कार, गाड़ी रोक ली और डाकुओं के गिरोह ने उस नेता को पकड़ लिया। लेकिन वे डाकू बड़े मजेदार लोग थे। नेता तो बहुत घबड़ाया, लेकिन उन डाकुओं ने कहा, घबड़ाओ मत, क्योंकि हम सजातीय हैं, हम एक ही जाति के हैं। उस नेता ने कहा, मैं मतलब नहीं समझा। तो उन डाकओं ने कहा कि कई बातों में हमारा बडा तालमेल है। तम्हारे आगे पलिस चलती है, हमारे पीछे पुलिस चलती है। ज्यादा फर्क नहीं है। तुम पुलिस की तरफ से आगे से बंधे होते हो, हम पीछे से बंधे होते हैं। और ध्यान रहे, आगे पुलिस हो तो भागना जरा मुश्किल है। पीछे पुलिस हो तो भागा भी जा सकता है।
जिंदगी के अनूठे रहस्यों में से एक यह है कि हम जिसे भी बांधते हैं उससे हमें बंध ही जाना पड़ेगा। उसे बांधने के लिए भी बंध जाना पड़ेगा। परिग्रह की बड़ी गहराइयां हैं। उसके सूक्ष्मतम हिस्सों को समझ लेना जरूरी है, तो उसके बाहर के विस्तार को भी समझा जा सकता है।
परिग्रह की पहली जो कोशिश है वह यह है कि मुझे यह खयाल भूल जाये कि मैं परतंत्र हूं। मुझे यह खयाल भूल जाये कि मैं सीमित हूं। मुझे यह खयाल भूल जाये कि मैं अपना मालिक नहीं हूं। लेकिन यह खयाल भुलाया नहीं जा सकता। अगर मैं मालिक नहीं हूं तो नहीं हूं। और कितना ही मैं विस्तार करूं इसे भुलाने का, उस सारे विस्तार के बीच भी मेरे गहरे में मैं जानंगा कि मैं मालिक नहीं हैं। सिकंदर भी जानता है कि वह मालिक नहीं है हिटलर भी जानता है कि वह मालिक नहीं है। और जितना ही पता चलता है कि मालिक नहीं हूं, उतना ही वह बाहर की मालकियत को फैलाता चला जाता है, मजबूत करता चला जाता है। जितनी ही बाहर की मालकियत मजबूत होती है, हो सकता है थोड़ी-बहुत देर को भूल जाता हो, लेकिन बार-बार स्मरण लौट आता है कि मैं मालिक नहीं हूं।
हम भीतर मालिक क्यों नहीं हैं? जो भीतर है उसे हम जानते भी नहीं, तो मालिक होना तो बहुत असंभव है।
स्वामी राम अमरीका गये तो अमरीकी प्रेसिडेंट उनसे मिलने आया। और उस अमरीकी प्रेसिडेंट ने राम की बातें बड़ी अजीब सी पायीं। असल में भाषा अलग थी, भाषा अलग होगी ही। संन्यासी जो भाषा बोलता है वह किसी और दुनिया की भाषा है। राम सदा अपने को बादशाह राम कहते थे। उस अमरीकी प्रेसिडेंट ने कहा, मैं जरा समझ नहीं पा रहा। व्हाट डू यू मीन बाई इट? यह बादशाह राम, इसका मतलब क्या है? आपके पास कुछ दिखाई तो
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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