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गुरजिएफ और जुंग कहते हैं इंडिविजुएशन, क्रिस्टलाइजेशन। व्यक्ति पहली दफा हुआ है। यह उसी अर्थ में कहते हैं वे जैसे बूंद सागर हो गई है। महावीर भी कहते हैं, आत्मा। वह गुरजिएफ के साथ उनकी भाषा का मेल है। शंकर कहते हैं, ब्रह्म। उनका भी गुरजिएफ की भाषा से मेल है। वे सभी पॉजिटिव टर्न्स का, विधायक शब्दों का उपयोग कर रहे हैं। __सिर्फ एक आदमी हुआ बुद्ध, जिसने निषेधात्मक शब्द का प्रयोग किया। उसने कहा, अनात्मा। आत्मा हुई नहीं, समाप्त हो गई। अब कोई आत्मा वगैरह नहीं है, अब कोई ब्रह्म वगैरह नहीं है, अब तो वही रह गया जिसको कोई भी शब्द कहनेवाला नहीं है। वह यह कह रहे हैं कि बूंद नहीं रह गई, अब छोड़ो बातचीत। वह कहेंगे कि तुम यह भी कहते हो कि बूंद सागर हो गई, तो फिर भी तुम बड़ी बूंद ही बना रहे हो। सागर भी बड़ी बूंद है, उसकी भी सीमा तो होगी ही। कितना ही बड़ा सागर हो, कल्पना करें। कितना ही बड़ा सागर हो, उसकी सीमा तो होगी ही।
तो बुद्ध कहते हैं कि जब भी तुम विधायक शब्द का उपयोग करोगे तब सीमा बन जाएगी। हालांकि आम आदमी के मन में विधायक शब्द जल्दी पकड़ में आता है। अगर उससे कहा जाये कि तुम मिट जाओ बस, फिर पूछो मत। तो वह कहेगा, किस लिए मिट जायें, बनेंगे क्या? उससे कहो, ईश्वर बन जाओगे, तब बात समझ में आती है। उससे कहो, ब्रह्म बन जाओगे, तब बात समझ में आती है। ____ इसलिए बुद्ध के पैर इस देश में न जम सके। न जमने का कारण था। विधायक भाषा के हम आदी थे। बुद्ध ने पहली दफा मनुष्य-जाति के इतिहास में निषेधात्मक भाषा का ठीकठीक प्रयोग किया। और सच तो यह है कि परम सत्य के संबंध में सिर्फ निगेटिव स्टेटमेंट ही हो सकते हैं, क्योंकि सब विधायक वक्तव्य सीमा बनाएंगे।
इसलिए उपनिषद कहते हैं, नेति-नेति। वह नकारात्मक वक्तव्य है। वह कहते हैं, नाट दिस, नाट दैट; न यह, न वह। अगर तुम कहो कि ब्रह्म ऐसा है तो यह भी नहीं, और तुम कहो कि ब्रह्म वैसा है तो वह भी नहीं। और अगर उपनिषद के ऋषि से पूछो, तुम क्या कहते हो? तो वह कहेगा, नेति-नेति। यह भी नहीं, वह भी नहीं। और आगे मत पूछो, आगे जो बच जाये वही।
बुद्ध भी नकारात्मक भाषा का उपयोग करते हैं। बुद्ध कहते हैं, कुछ भी नहीं, शून्य। इसलिए जो शब्द उन्होंने उपयोग किया है निर्वाण, वह बड़ा अर्थपूर्ण है। निर्वाण कहते हैं दीये के बुझ जाने को। एक दीया है, फूंक मार दी, बुझ गया। अब हम पूछे कि कहां गई ज्योति? कहेंगे, खो गई। बूंद तो सागर हो जाती है, ज्योति क्या हो गई? तो कहेंगे, ज्योति खो गई। या अगर कहना ही हो तो यह कह सकते हैं कि ज्योति अब सब हो गई, सबके साथ एक हो गई, अब कोई सीमा नहीं रही उसकी।
तो बुद्ध, या वे सारे लोग जिन्हें ठीक-ठीक कहना है, नकारात्मक ढंग से कहेंगे। ऐसा नहीं कि महावीर को पता नहीं, ऐसा नहीं कि शंकर को पता नहीं। लेकिन लोग आतुर होते हैं कि बूंद अगर खोने को भी राजी होगी तो सागर के लोक में राजी होगी। बूंद अगर खोने
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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