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मूर्तियों के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता और कहता कि बुद्धं शरणं गच्छामि। उसके शिष्यों ने उसको पकड़ा और कहा कि खूब धोखा दे रहे हैं। हमसे कहते हैं बुद्ध कभी हुए नहीं, और खुद मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि।
तो रिझाई ने कहा, इसीलिए तो कहता हूं। अगर जरा भी हुए होते तो कभी उनके चरणों में जाने की बात न करता। हुए ही नहीं, थे ही नहीं। पानी पर खिंची लकीर जैसे थे, खिंच भी नहीं पाई और खो गई। कहना चाहिये-पानी पर खिंची लकीर भी जरा ज्यादा बात हो गई, वह हंस वाली बात ठीक है-प्रतिबिंब बना और खो गया। वह कहता कि हुए ही नहीं, इसीलिए तो उनकी मूर्ति बना कर बैठा हूं। इसी आशा में कि किसी दिन मैं भी उस जगह पहुंच जाऊं जहां होना और न होना बराबर हो जाता है। जहां हूं या नहीं, सब बराबर है। जहां जीवन और मृत्यु एक ही अर्थ ले लें। जहां अस्तित्व और अनस्तित्व समान, पर्यायवाची हो जाते हैं। इसीलिए तो कहता हूं, बुद्धं शरणं गच्छामि। इसका मतलब केवल इतना ही है, वह रिझाई कहने लगा, कि मैं भी तुम्हारे चरणों में आता हूं, जिनके कोई चरण नहीं। मैं भी तुम्हारी शरण में आता हूं, तुम, जो हो ही नहीं। मैं भी तुम्हारे जैसा हो जाना चाहता हूं, तुम, जो कि कभी हुए ही नहीं हो। तुम हो ही नहीं।
एक शून्य व्यक्तित्व है तथाता। भीतर एक जीता-जागता शून्य, वायड एंबाडीड कहना चाहिए। एक शून्य जिसके चारों तरफ हड्डी-मांस-मज्जा है। भीतर सब शून्य है। इस शून्य की तरह जो हो जाता है, चौथी स्थिति में भी पहुंच जाता है। तथाता-वही मैंने जो पहले उत्तर में आपको कहा-कॉस्मिक अनकांशस से वह जो ब्रह्म अचेतन है. उसमें छलांग है।
साक्षी में हम बाहर के जगत से भीतर आते हैं, व्यक्ति अचेतन में प्रवेश हो जाता है। सजगता से व्यक्ति अचेतन से पार होता है, समष्टि अचेतन में प्रवेश हो जाता है। समष्टि अचेतन में तथाता की साधना शुरू करनी पड़ती है तो ब्रह्म अचेतन में प्रवेश हो जाता है।
और ब्रह्म अचेतन के बाद तो कोई साधना नहीं बचती। तथाता फिर साधना नहीं होती। तथाता फिर स्वरूप हो जाता है, फिर कुछ साधना नहीं पड़ता। फिर वह इफर्टलेस है, फिर तीर चलाने नहीं पड़ते, चलते हैं; जैसे श्वास लेनी नहीं पड़ती है और ली जाती है। फिर हृदय की धड़कन जैसे चलती है, चलानी नहीं पड़ती; ऐसा ही जीवन का सब चलता है, चलाना नहीं पड़ता। फिर भीतर चलाने वाला खो गया। मैं खो गया। फिर भीतर वह जो व्यक्ति था, वह खो गया है।
तथाता परम उपलब्धि है, वह जीवन की अनंततम गहराई में, एबिस में, अनंत गहराई में उतर जाना है। धर्म द्वार है। योग उस द्वार पर चढ़नेवाली सीढ़ियों की विधि है। तथाता उस मंदिर में विराजमान देवता है।
एक आखिरी सवाल और!
ओशो, आपने कहा है अप्रमाद के प्रसंग में कि प्रमादी आदमी कुछ करता नहीं है, चीजें
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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