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आदत बना रखी है। असल में वह डिफेंस मेजर है, वह रक्षा का उपाय है कि पता नहीं, पत्नी अब क्या करेगी, तो आप मुस्कुराते हैं। पत्नी भी जो जवाब दे रही है, वह जवाब जानकर नहीं दे रही है। वह सब बिलकुल आदत के हिस्से हो गए हैं। इसलिए हम मिलते ही नहीं कभी। क्योंकि सजग लोग ही मिल सकते हैं। सोये हुए लोग सिर्फ मिलते हुए मालूम पड़ते हैं। वे वही बातें कहे चले जाते हैं, कहे चले जाते हैं रेकार्ड की तरह!
मेरे एक प्रोफेसर थे। मैं जब भी किसी किताब के बाबत पूछता कि आपने वह पढ़ी है? वे कहते, हां पढ़ी है, बहुत अच्छी किताब है। ऐसे उनकी बातचीत से मुझे कभी नहीं लगा था कि उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ा है। एक दिन मैंने एक झूठी किताब का नाम उनसे लिया। न तो वैसा कोई लेखक है, न वैसी किताब कभी लिखी गई है। मैंने उनसे पूछा, आपने फलांफलां लेखक की किताब पढ़ी है? उन्होंने कहा, अरे, बहुत बढ़िया किताब है। बहुत ही अच्छी किताब है। जो वे सदा कहते थे, उन्होंने कहा। ___ मैं उनकी आंखों की तरफ देखता रहा। मैं थोड़ी देर चुप बैठा रहा। तब उन्होंने कहा, क्या मतलब? वे थोड़े बेचैन हुए। उन्होंने पूछा, चुप क्यों बैठे हो? क्या मैंने गलत कहा? किताब ठीक नहीं है? हो सकता है, अपनी-अपनी पसंद है, आपको पसंद न पड़ी हो। मैं फिर भी चुप रहा और उनकी आंखों की तरफ देखता रहा, तब उनकी घबड़ाहट और बढ़ गई। और उन्होंने कहा, क्या मतलब है? दो में से एक ही तो बात हो सकती है! आपको पसंद न आयी हो, हो सकता है, लेकिन आप चुप क्यों हैं? ___मैंने कहा, मैं इसलिए चुप नहीं हूं, मैं इसलिए चुप हूं कि शायद आपको अभी भी याद
आ जाए। उन्होंने कहा, क्या मतलब? मुझे अच्छी तरह याद है। लेकिन अब उन्हें याद आ गया है। उनका पूरा चेहरा बदल गया। मैं फिर भी चुप रहा।
उन्होंने कहा, माफ करना, यह मुझे बड़ी गलत आदत पड़ गई है। इसे मैं कह ही देता हूं। मैंने कई दफा तय किया कि यह बात मुझे नहीं कहनी चाहिए। लेकिन पता नहीं, जब तक मुझे पता चलता है तब तक तो बात हो ही चुकी होती है। मैं कह ही चुका होता हूं। न मालूम कैसी कमजोरी है कि मैं यह कभी कह ही नहीं पाता कि यह किताब मैंने नहीं पढ़ी। नहीं, मैंने यह किताब नहीं पढ़ी। लेकिन लाइब्रेरी में देखी जरूर है, उन्होंने कहा। ऐसे ही निकलते वक्त नजर पड़ गई होगी, बाकी मैंने पढ़ी नहीं है। मैंने उनसे कहा, आप वापस लौट रहे हैं, क्योंकि यह किताब है ही नहीं लाइब्रेरी में। देखी भी नहीं जा सकती।
ऐसा आदमी का मन है मूर्च्छित। वह क्या कह रहा है, क्या कर रहा है, कहां जा रहा है, कुछ भी पता नहीं है। सजगता का अर्थ है, प्रत्येक कृत्य होशपूर्वक हो कि मैं क्या कर रहा हूं। साक्षी में तीसरे बिंदु को उभारना है। और जो साक्षी बन गया उसके लिए सजगता आसान होगी। क्योंकि साक्षी में, उसे साक्षी होने के लिए तो सजग होना पड़ता है। लेकिन सजगता में प्रत्येक कृत्य को सजग रूप से करना है। ऐसा नहीं देखना है कि कोई और कर रहा है, और मैं अलग हूं। नहीं, अलग कोई भी नहीं है। जो हो रहा है, उस होने के भीतर एक दीया जल रहा है होश का। वह बिना होश के नहीं हो रहा है। पैर भी उठा रहा हूं, तो
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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