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________________ रोज शिकायत करते हैं कि हम जिसको भी सुख देते हैं, वह हमें सुख नहीं लौटाता। आप सुख देते होंगे, पहुंचता दुख है। वह भी सुख देता है, पहुंचता दुख है। बड़ी गलतफहमी होती है। जो हम देते हैं वह पहुंचता नहीं, कभी नहीं पहुंचा। इसलिए जितने हम उन पर नाराज होते हैं जो हमें सुख देते हैं, उतने हम उन पर नाराज नहीं होते जो हमें दुख देते हैं। क्योंकि कम से कम लेन-देन साफ-सुथरा तो होता है कि वे दुख दे रहे हैं। लेकिन जो हमें सुख देने की बात करते हैं और जब दुख पहुंचता है-जैसे मैं किसी को प्रेम करने लगू और कल उससे विवाह कर लूं तो मैं सब सुख देने की कोशिश करूंगा और दुख पहुंचेगा। किस पति ने किस पत्नी को कब सुख दिया? किस पत्नी ने किस पति को कब सुख दिया? लेकिन शायद मैं समझूगा कि मैं सुख पहुंचा रहा हूं और दूसरा दुख पहुंचा रहा है। वही भूल हो रही है दूसरे को भी, वह भी सोच रहा है, मैं सुख पहुंचा रहा हूं, दूसरा दुख पहुंचा रहा है। ____ मनुष्य जीवन का सारा अंतर्द्वद्व, सुख पहुंचाने की कोशिश और दुख पहुंचने की स्थिति से पैदा होता है। पहुंचाते सभी सुख हैं, पहुंचता सदा दुख है। असल में दूसरे को हम सुख पहुंचा ही नहीं सकते, दूसरे के साथ हम अहिंसक हो ही नहीं सकते। यह इम्पॉसिबिलिटी है। इसका कोई उपाय नहीं है कि हम दूसरे के साथ अहिंसक हो सकें। हम दूसरे को फूल भी फेंक कर मारेंगे, जब वह लगेगा, तो पत्थर हो जायेगा। ____एक फकीर को सूली दी जा रही थी। लोग उस पर पत्थर फेंक रहे थे, अंगारे फेंक रहे थे। मंसूर लटका था सूली पर और लोग फेंक रहे थे। एक फकीर जुन्नैद नाम का भी उनमें मौजूद था। वह भी एक सूफी संत था। भीड़ बड़ी थी और सभी कुछ-न-कुछ फेंक रहे थे। जुन्नैद के मन में दुख तो था कि मंसूर की हत्या ठीक नहीं हो रही, लेकिन इतनी हिम्मत भी न थी कि कह सके कि यह ठीक नहीं हो रहा है। सब लोग कुछ फेंक रहे थे। जुन्नैद कुछ न फेंके तो शायद लोग उसको भी मारें कि तुम ऐसे क्यों खड़े हो? तो जुनैद ने एक फूल फेंक कर मारा। सोचा उसने कि मंसूर को लगेगा भी नहीं, मंसूर समझेगा कि फूल फेंका, भीड़ भी समझेगी कुछ फेंका, खाली हाथ नहीं खड़ा रहा। लेकिन लोगों के पत्थर तो मंसूर झेल गया, जुनैद का फूल न झेल सका। ___ जुन्नैद का फूल लगते ही मंसूर तो धाड़ मार कर रोने लगा। अब तक हंस रहा था। जुन्नैद तो घबड़ा गया। जुन्नैद ने कहा, मैंने फूल फेंक कर मारा और आप रोते हो और इतने पत्थर खा गये? मंसूर ने कहा, फूल भी फेंक कर मारा न? मारने से दुख पहुंचता है। कोई पत्थर फेंके, सीधा लेन-देन है। लेकिन फूल? मारते भी हो और छिपाते भी हो। मारना भी चाहते हो और बताना भी नहीं चाहते। चोट गहरी पहुंच गयी जुन्नैद! और ये तो नासमझ थे, इन्हें माफ किया जा सकता था, पर तुम भी मारते हो! पर जुन्नैद ने कहा कि मैंने फूल फेंका है। मंसूर ने कहा, कुछ भी फेंको, चोट लग जाती है। असल में फेंकते ही हम तब हैं जब दूसरा है, नहीं तो हम फेंकेंगे कहां? 18 ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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