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उनकी। वे खुद ही खेल रहे थे। कुछ लोगों का खेल होता है। कुछ लोग ताश के पत्ते अकेले खेलते हैं। दोनों तरफ से चाल चलते हैं। होना चाहिए उन्हें पागलखाने में, लेकिन होते बहुत बुद्धिमान लोग हैं।
समाज दोहरी चाल चलती है-नाम भी देती है, गाली भी देती है। प्रशंसा भी देती है, निंदा भी देती है। आदर भी देती है, अपमान भी देती है। दोहरी चाल है समाज की। और उस दोहरी चाल में आदमी बुरी तरह फंसता है। वह दूसरा भी झूठ है और यह मैं? यह मेरा 'मैं' भी झूठ है। ये दो झूठ एक साथ जिंदा रहते हैं। जिस दिन दूसरा गिरता है, उसी दिन मैं गिर जाता है। इधर मैं गिरता, उधर दूसरा गिर जाता है। ___मैं और तू के गिर जाने पर जो शेष रह जाता है वह अहिंसा है। तो जब तक हम कह सकते हैं, तू, तब तक हिंसा जारी रहेगी। जब तक हम कह सकते हैं, मैं...मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप 'मैं' शब्द का उपयोग न करेंगे। मैं शब्द का उपयोग करना ही पड़ेगा। महावीर भी करते हैं, लेकिन तब वह शब्द है, लिंग्विस्टिक ट्रिक, तब वह भाषा का खेल है। तब वह अस्तित्व नहीं है। तब मैं सिर्फ एक शब्द है, जो उपयोगी है। बहुत से शब्द उपयोगी हैं, लेकिन अस्तित्व में नहीं हैं, अस्तित्व से उनका कोई संबंध नहीं है।
ध्यान रहे, इस मैं और तू के बीच जो उपद्रव पैदा हुआ है, वह हिंसा है। मैं और तू के बीच पैदा हुआ उपद्रव होगा ही। दो झूठ खड़े हैं। दो झूठों के बीच जो भी होगा, वह उपद्रव ही हो सकता है। हां, यह उपद्रव कभी प्रीतिपूर्ण हो सकता है, कभी अप्रीतिपूर्ण हो सकता है। कभी यह उपद्रव प्रेम बन सकता है, कभी घृणा बन सकता है। यह बात दूसरी है। लेकिन जब तक 'मैं' है और जब तक 'तू' है तब तक हिंसा है। यह हिंसा का पहला और सूक्ष्मतम रूप है। फिर हिंसा के बहुत रूप हैं जो इससे फैलते चले जाते हैं। उनको तो ऐसे ही गिना दूं, क्योंकि अगर ओरिजिनल सोर्स हमारे खयाल में आ जाये। फिर तो अनंत हिंसाएं हैं। उनका सारा हिसाब लगाना तो बहुत मुश्किल है। __ अहिंसा तो एक है, हिंसाएं अनंत हैं। हिंसा मल्टी-डायमेंशनल है। लेकिन निकलती एक ही झरने से है। मैं और तू का झरना, या कहें आत्म-अज्ञान का झरना।
महावीर से अगर कोई पूछे : अहिंसा क्या है? तो वे कहेंगेः आत्मज्ञान। हिंसा क्या है? तो वे कहेंगे: आत्म-अज्ञान। अपने को न जानना हिंसा है।
यह बड़ी अजीब बात है। हम तो समझते हैं कि दूसरे को दुख देना हिंसा है। हम तो समझते हैं, दूसरे को सुख देना अहिंसा है। लेकिन ध्यान रहे, दूसरे को चाहे सुख दो, चाहे दुख दो, हर हालत में दुख ही पहुंचता है। देने की सब आकांक्षाएं व्यर्थ हो जाती हैं, क्योंकि दूसरे को सुख दिया ही नहीं जा सकता। सुख सिर्फ स्वयं को दिया जा सकता है। जिस दिन आप आप नहीं रह जाते, दूसरे नहीं रह जाते, उस दिन ही आपकी तरफ मुझसे सुख बह सकता है। और जब तक आपको सुख देने की मैं कोशिश करता हूं, तब तक दुख ही देता हं। लेकिन हमें खयाल में नहीं आता।
कभी आपने सोचा कि जिन-जिन को आपने सुख दिया, उन-उन को दुख पहुंचा! लोग
अहिंसा
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